शारदीय_नवरात्रि की दुर्गापूजा की परम्परा को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने प्रारंभ किया था-कौशिकेय

शारदीय_नवरात्रि की दुर्गापूजा की परम्परा को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने प्रारंभ किया था-कौशिकेय

शारदीय नवरात्रि में होने वाली शक्ति उपासना के उत्सव दुर्गा-पूजा की परम्परा को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने पाँच हजार आठ सौ छिहत्तर ईसापूर्व प्रारंभ किया था.आध्यात्मिक तत्ववेत्ता. साहित्यकार शिवकुमार सिंह कौशिकजी ने बताया की आज से सात हजार आठ सौ तिरानबे वर्ष पहले सेतुसमुद्रम के सागर तट पर एक शमी वृक्ष के नीचे यक्ष, गंधर्व, गरुड़, ऋक्ष, वानर जाति के मानवों के सहयोग से पहली दुर्गा-पूजा हुई थी । देवीपुराण महाभागवत, बृहत्सार सिद्धांत, हनुमन्नाटक, श्रीमद् बालमीकीयरामायण, कम्बरामायण, आनंदरामायण आदि ग्रंथों के परिशीलन में मुझे यह तथ्य साक्ष्य प्राप्त हुये हैं । त्रेतायुग रामायणकाल में जिस समय प्रभु श्रीराम ने माता सीता को राक्षसराज रावण की कैद से मुक्त कराने के लिए लंका विजय के ऊपर आक्रमण किया था । उसी युद्ध के समय का घटनाक्रम है । जब रावण पुत्र इन्द्रजीत मेघनाद युद्ध का नेतृत्व करने रणभूमि में आया । तो वह अपनी कुलदेवी निकुभ्भना से प्राप्त मायावी शक्तियों का प्रयोग करना शुरु कर दिया । युद्ध भूमि में कभी पत्थरों की बरसात होने लगती थी । कभी धुप्प अंधेरा हो जाता था । कभी आंखो को चुधियानें वाला प्रकाश हो जाता था । इन अकल्पनीय घटनाओं से भगवान राम की सेना के यक्ष, गंधर्व, गरुड़, ऋक्ष, वानर जाति के सैनिक भयभीत होकर भागने लगते थे । प्रभु श्रीराम के गुप्तचरों ने मेघनाद की इस शक्ति के बारे में देवी निकुम्भना की उपासना को कारण बताते हुए, देवी उपासना करने की सलाह दी । वर्तमान में तमिलनाडु प्रान्त के रामनाथपुरम् जिले में समुद्र तट पर स्थित छेदुकरई गाँव जहाँ भगवान राम ने समुद्र पर पुल बनाने के लिए आधार शिला रखी थी । इसी सागर तट पर एक शमी वृक्ष के नीचे सागर तल से मिट्टी लाकर देवी उपासना करने की वेदी बनाई गई । देवी की प्रसंन्नता हेतु सागर के जल से भरा कलश स्थापित किया गया । कलश पीठ पर जयंती जौ सहित सप्त धान्य रोपित किये गये । अपराजिता, हरसिंगार के पुष्प अर्पित किये गये । स्वयं प्रभु श्रीराम ने आश्विन मास की सप्तमी, अष्टमी और नवमी तिथियों में तीन दिनों तक अनवरत माँ दुर्गा शक्ति की उपासना किया । अंतिम दिन विल्व फलों की बलि दी गयी । दशमी तिथि को इनका सागर में विसर्जन किया गया था । इस प्रकार संसार की पहली दुर्गा-पूजा सम्पन्न हुई ।जिसकी परम्परा आज भी चल रही है । भारत के पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, उड़ीसा,असम, महाराष्ट्र, तमिलनाडु , बिहार, उत्तरप्रदेश में आज भी पितृपक्ष की अमावश्या को जिसे बंगला भाषा में महालया कहा जाता है । इसी दिन दुर्गा-पूजा के लिए बनने वाली वेदियों और विग्रहों के लिये किसी स्थानीय नदी, सरोवर, पोखरे से पूजन पूर्वक मिट्टी लाकर आश्विन मास की सप्तमी, अष्टमी, नवमी तिथियों में पूजन किया जाता है और दशमी तिथि को विसर्जन कर इस प्राचीन परम्परा का निर्वाह किया जाता है ।

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