वर्तमान समय में राजनीति को वास्तविक अर्थ में परिभाषित करना कठिन है-स्वामी राजनारायणाचार्य

वर्तमान समय में राजनीति को वास्तविक अर्थ में परिभाषित करना कठिन है-स्वामी राजनारायणाचार्य
स्वामी राजनारायणाचार्य जी ने कहा की देखा जाए तो राजनीति एक सामासिक शब्द है जिसका अर्थ होता है- राजाओं द्वारा राज्य को संचालित करने की सुन्दर नीति ।
राजन् नीति = राजनीति।
राजन् शब्द राजृ दीप्तौ धातु से कनिन् प्रत्यय करने पर बनता है ।
राजनीति शब्द में नीति के पूर्व में जो राज है वास्तव में वह राजन् से निष्पन्न होता है जो राजा,राज्य एवं राजकीय कार्य कलापों से सम्बद्ध होता है।
सन्दर्भ संकेत – यास्ककालीन भारतवर्ष ।
वैदिक काल में राजा का प्रयोग शासक,रक्षक आदि के लिए हुआ है।
राज नीति का जो अन्तिम पद है,वह नी धातु से क्तिन् प्रत्यय द्वारा बना हुआ है जिसका अर्थ होता है निर्देशन,आचरण,व्यवहार आदि ।
राजन् का राज शब्द शासक,राज्य तथा राजकीय शासन के लिए प्रयुक्त होता है ।
प्रजातंत्र में जाति वर्ण की प्रधानता न होकर जो संवैधानिक रूप से देश का प्रधानमंत्री तथा प्रदेश का मुख्यमंत्री बनता है,वास्तव में वह अपने कार्यकाल तक राजा होता है।
ज्ञातव्य है कि उस राजा के शरीर में पाँच लोकपालों का तेज समाहित रहता है ।
राजा को नृप भी कहा जाता है-
नृन् पाति इति नृपः।
जो मनुष्यों का सम्यक् प्रकार से पालन पोषण करता है उसे नृप कहा जाता है ।
मानव स्वभाव दो भागों में विभक्त हुआ करता है- दैवी वृत्ति तथा आसुरी वृत्ति का स्वभाव ,ये दोनों ही वृत्तियाँ आपस में लड़ती रहती हैं।
जब दैवी वृत्ति के स्वभाव वाले राजा का साम्राज्य होता है तो देश में शान्ति,सौहार्द,अभय,खलनिग्रह जैसे महत्वपूर्ण कार्य होते हैं।
आसुरी वृत्ति के स्वभाव वाले राजा का साम्राज्य होता है तो पापाचार,भ्रष्टाचार,अनाचार बढ़कर विध्वंसक हो जाता है जिससे जनता में विकार उत्पन्न होकर कर्तव्य पथ से गिरा देता है ।
जो सरकता रहता है वह है संसार-संसरति इति संसारः।
संसार में स्वाभाविक रूप से परिवर्तन होते रहता है ।
दैव अनुकूल रहने पर दैवीवृत्ति का साम्राज्य होता है तथा दैव प्रतिकूलता से आसुरी वृत्तियाँ साम्राज्य करने लगती हैं।
दैवीवृत्ति के राजा लोकहित में कार्यों को सम्पादित करके अमरकीर्ति स्थापित कर लेता है,क्योंकि वह जानता है कि जब यह शरीर ही स्थायी नहीं रह सकता है तो प्रजातंत्र में पद कैसे स्थायी रह पायेगा।
राष्ट्र स्वयं ही देशवासियों का पिता एवं पति होता है क्योंकि राष्ट्र तो परमात्मा ही है।
ॐविश्वं विष्णुर्वषट्कारो भूतभव्यभवत्प्रभुः।
भूतकृद् भूतभृद् भावो भूतात्मा भूतभावनः॥१४॥
{ श्रीविष्णुसहस्त्रनाम }
विश्व भी श्रीभगवान् ही हैं।