पुण्यतिथि पर किए गए ब्रम्हलीन महंत प्रो. वीरभद्र मिश्र याद, गंगा में दीपदान

वाराणसी (विकास राय): पर्यावरणविद् और संकटमोचन मंदिर के पूर्व महंत प्रोफेसर वीरभद्र मिश्र की पुण्यतिथि की पूर्व संध्या पर गुरुवार को गंगा में दीपदान किया गया। तुलसीघाट के बगल में स्थित प्रोफेसर वीरभद्र मिश्र घाट पर इसका आयोजन हुआ। दीपदान की अगुवाई उत्तर प्रदेश पूर्वांचल विकास बोर्ड के उपाध्यक्ष डाक्टर दयाशंकर मिश्र दयालु ने की। उन्होंने कहा कि प्रो. मिश्र ने गंगा की निर्मलता के लिए आजीवन संघर्ष किया। उनका संपूर्ण जीवन देश की सांस्कृतिक विरासतों को सहेजने में गुजरा।
प्रो. मिश्र के छोटे सुपुत्र और बीएचयू के न्यूरोलाजिस्ट प्रोफेसर विजयनाथ मिश्र ने कहा कि बाबूजी ने पर्यावरण संरक्षण और मां गंगा की स्वच्छता के लिए जो बीड़ा उठाया था, वह आज भी जारी है। जब तक गंगा में गिर रहे नाले और सीवेज बंद नहीं किए जाएंगे, तब तक गंगा स्वच्छता की बात करना बेमानी है। इस अवसर पर भाजपा नेता जितेन्द्र कुशवाहा, शैलेश तिवारी, शिव विश्वकर्मा, विदुषी मिश्रा, श्रुति मिश्रा, गौरी मिश्रा, रजत मिश्रा आदि मौजूद थे।
बीएचयू में हाइड्रॉलिक इंजीनियरिंग के प्रोफेसर वीरभद्र मिश्र को नदी और पर्यावरण के लिए लड़ने वाला योद्धा माना जाता था। यूएन की तरफ से उन्हें ‘ग्लोबल 500 ऑनर’ (1992) का खिताब मिला। मशहूर पत्रिका ‘टाइम’ की तरफ से ‘हीरो ऑफ द प्लैनेट’ (1999) भी घोषित किया गया। उनकी पहचान शिक्षक, पर्यावरणविद् और संस्कृतिकर्मी कई रूपों में होती थी।
गंगा और संकटमोचन के प्रति उनकी आस्था के कारण बनारसी उन्हें आदर और प्यार से ‘महंत जी’ और ‘महाराज’ कहते थे। महंत जी के व्यक्तित्व में एक वैज्ञानिक के विवेक और धर्मप्राण हिंदू की श्रद्धा का अद्भुत सामंजस्य था। जैसे राममनोहर लोहिया ने कभी अपनी नास्तिकता को नहीं छिपाया, वैसे ही महंत जी ने अपनी आस्तिकता की कभी उपेक्षा नहीं की, बल्कि इस चीज को उन्होंने अपनी शख्सियत और अपने लक्ष्यों के सिलसिले में एक ताकत के तौर पर विकसित किया। एक आधुनिक और जागरूक वैज्ञानिक के रूप में नदियों की शुद्धता का समर लड़ते हुए।
उन्होंने नदी जल की सफाई के पश्चिमी पैमानों को भारत की नदियों के लिए कभी काफी नहीं माना। वह कहा करते थे, ‘पेस्टिसाइड्स और बैक्टीरियोफेज वगैरह से हमारी नदियों की पवित्रता कैसे नापी जा सकती है? हमारा आदर्श तो गोस्वामी तुलसीदास की पंक्ति ही हो सकती है, ‘दरस परस मज्जन अरु पाना, हरहि पाप कह बेद पुराना’, यानी, जल ऐसा हो, जिसके दर्शन, स्पर्श, पान और स्नान से सभी पाप कट जाएं। इसके बाद लेकिन वह शोक के साथ जोड़ते थे, ‘पर फिलहाल तो हमारी नदियां पश्चिम के पैमानों पर भी खरी नहीं उतरतीं।’
महंत जी ने गंगा की सफाई के लिए अकेले युद्ध लड़ा। यह ऐसा युद्ध था, जिसके नतीजे उन्हें पता थे। उनके सामने जबर्दस्त शक्ति-संसाधन से भरपूर सरकारी महकमे और कुतर्क की योग्यता से लैस अधिकारी थे। गंगा एक्शन प्लान के पहले चरण के लिए उनके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया गया, लेकिन वह पराजित होकर भी बने रहे। उनकी बात का कुल जोड़ यही था : नगरों का मलमूत्र और उद्योगों का खराब पानी प्रदूषण की सबसे बड़ी वजहें हैं, इन्हें किसी भी क़ीमत पर गंगा में नहीं डाला जा सकता। उनका कहना था कि जिन शहरों के किनारे से होकर नदियां नहीं गुजरतीं, वहां के लोग क्या मल-मूत्र त्याग नहीं करते? बेंगलुरु के सीवेज का इंतजाम जैसे किया जाता है, वैसे ही आप काशी, हरिद्वार और इलाहाबाद का भी प्रबंध कीजिए। मल-मूत्र को शहरों के बाहर और नदियों से दूर ले जाइए और वहां उसका इलाज कीजिए, उससे खाद बनाइए। महंत जी ने यों ही शास्त्रीय संगीत को उठाने के लिए भी लगातार दुनिया भर में मशहूर संकट मोचन संगीत समारोह का आयोजन किया।