June 19, 2025

” पुराणों में वर्णित भगवान श्री गणेश का स्वरूप एक ऐसा विराट रूपक है जो प्रकृति और पर्यावरण के प्रति हमारी संवेदनाएं जगाता है और उनके प्रति हमें अपनी जिम्मेदारियों का बोध कराता है “

IMG-20230110-WA0025

” पुराणों में वर्णित भगवान श्री गणेश का स्वरूप एक ऐसा विराट रूपक है जो प्रकृति और पर्यावरण के प्रति हमारी संवेदनाएं जगाता है और उनके प्रति हमें अपनी जिम्मेदारियों का बोध कराता है ”

तैंतीस कोटि देवी-देवताओं में भगवान शिव और माता पार्वती के पुत्र गणेश जी प्रथम पूजनीय हैं। गणपति के सम्पूर्ण शरीर तथा प्रत्येक अंग अवयव से हमें अनेंक शिक्षाएं मिलती हैं। उनके प्रत्येक अंग में एक गहरा भाव छुपा होता है। उन्हें बुद्धि व ज्ञान का देवता कहा गया है ‌। श्री गणेश जी का वाहन चूहा और उनके मुख पर हाथी की सूंड़ का होना दर्शाता है कि उनके अन्दर अगाध पशु प्रेम की भावनाएं निहित थीं। गणपति बड़े व छोटे के भेदभाव को समाप्त करना चाहते थे। उनके अनुसार कोई भी प्राणी या पशु की उपयोगिता का आकलन उसके आकार को देखकर नहीं किया जा सकता।

पुराणों में वर्णित भगवान श्री गणेश का स्वरूप एक ऐसा विराट रूपक है जो प्रकृति और पर्यावरण के प्रति हमारी संवेदनाएं जगाता है और उनके प्रति हमें अपनी जिम्मेदारियों का बोध कराता है ‌।

शास्त्रों के अनुसार श्री गणेश जी की पूजा में दूर्वा का अति महत्व है। मान्यता है कि गणपति को दूर्वा चढ़ाने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। दूर्वा को पूजन परंपरा से जोड़कर उन्होंने दुर्लभ वनस्पतियों को बचाने का संदेश दिया ताकि हम धरती की रक्षा कर अपने लिये एक स्वच्छ वातावरण का निर्माण कर सके।

श्री गणेश जी ने पृथ्वी की परिक्रमा का विषय आने पर अपनी माता की परिक्रमा कर आने वाली पीढ़ी को यह शिक्षा दी कि जीवन में उसके माता-पिता से बड़ा व बढ़कर कोई नहीं होता है। प्रत्येक व्यक्ति को उनका सम्मान करना चाहिये।

आज भी श्री गणेश चतुर्थी का पर्व हमें अनेक शिक्षाएं दे जाता है। जैसे इस महोत्सव को समाज के सभी वर्ग व जाति के लोग एक साथ मिलकर मनाते हैं। इससे समाज से भेदभाव व ऊँच-नीच का भाव समाप्त होता है, और सामूहिकता का वातावरण निर्मित होता है। राष्ट्रीय भावना का विकास होता है ।

रूद्री अष्टाध्यायी’ के प्रथम अध्याय के प्रथम मंत्र में स्पष्ट हैं,-‘ऊँ गणानान्त्वा गणपतिं हवामहे। प्रियाणान्त्वा प्रियपतिं हवामहे। निधिनान्त्वा निधिपतिं हवामहे वसोमम् आहमजानि गर्भधम्म त्वमजासि गर्भधम्।’ (शुक्ल यजुर्वेद २३/१९) अर्थात्गणों के गणपति हम आपका आवाहन करते हैं,सदा दूसरों पर दया व प्रेम करने वालों के प्रियपति अर्थात् भक्त-वत्सल हम आपका आवाहन करते हैं तथा संसार के समस्त पदार्थों व सम्पदाओं (निधियों) के निधिपति हम आपका आवाहन करते हैं। आप हमारे हृदय में निवास करें। हे विघ्नेश्वर,आप ही गर्भ बीज द्वारा संसार को प्रकट करते हो और स्वयं भी प्रकट होते हो। अतः हमारी इच्छाओं की पूर्ति के लिए आप शक्ति प्रदान करें।`

इस प्रकार इस धरती पर सब जीवों के अधिपति गणेश जी हैं, तथा यह धरती समाधिस्थ शिव एवं समस्त प्रकृति सर्वशक्तिस्वरूपा माँ पार्वती (दुर्गा) है। यह सब स्वरूप मिलकर हमारा पर्यावरण है और इस पर्यावरण का संरक्षण ही लोक कल्याण हेतु पूजा अर्चना और हमारे कर्त्तव्य है।

श्रीगणेश जी को हम विभिन्न नामों से उच्चारित करते हैं। यथा-गजानन,गणपति, उमापुत्र,सिद्धिकर्ता,विघ्नहर्ता,विघ्नेश्वर,मंगलमूर्ति,गणाधिपति आदि। श्रीगणेश जी का जन्म भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को माना जाता है, इसे ‘गणेश चतुर्थी’ कहा जाता हैं।

शिव और पार्वती के पुत्र भगवान श्री गणेश वास्तव में प्रकृति की शक्तियों के एक विराट रूपक हैं। उनमें गहरे अर्थ छिपे हैं। उनके रूप में प्रकृति और मनुष्य के बीच संपूर्ण सामंजस्य का एक आदर्श प्रतीक गढ़ा गया है।

प्रथम पूज्य भगवान श्री गणेश जी महाराज की पूजा अर्चना कर सभी के लिए कल्याण, सुख- समृद्धि की कामना की गई । प्रकृति के संरक्षक व दिव्यज्ञान के प्रतीक भगवान गणेश की पर्यावरण संरक्षण की कामना से आरती उतारी । लोक मंगल की कामना से गणेश जी को मोदक का भोग लगाया ।

About Post Author