June 20, 2025

विद्वान् होना तो श्रेयस्कर है, पर उससे भी श्रेयस्कर भगवत्प्रेमी होना है -स्वामी राजनारायणाचार्य

IMG-20221114-WA0038

विद्वान् होना तो श्रेयस्कर है, पर उससे भी श्रेयस्कर भगवत्प्रेमी होना है -स्वामी राजनारायणाचार्य

प्रयास एवं परिश्रम से विद्या प्राप्त की जा सकती है, किन्तु भगवत्प्रेम तो महत्पादरजोभिषेक से ही होता है।
विद्या का स्वाभाविक धर्म विनम्रता है ।
” विद्या ददाति विनयम्”
” सा विद्या सन्मतिर्यया”
“सा विद्या या विमुक्तये”- जो मुक्ति प्रदान करे, वही तो विद्या है।
श्रीभगवान् में बुद्धि को लगा दे वह विद्या है।
शास्त्रार्थ से पाण्डित्य नहीं होता, पाण्डित्य तो सहृदयता से होता है ।
श्रीमद्भागवत में कथा आयी है कि’ उद्धवजी श्रीबृहस्पतिजी के शिष्य सर्वशास्त्रविशारद थे, किन्तु उन्हें स्वरुपज्ञान तो राग, अनुराग, भाव, महाभाव,अधिरुढ़ महाभाव, मोदन, मादन की प्रत्यक्षमूर्ति व्रजगोपिकाओं के सानिध्य से ही हुआ।
प्रेम का स्वरुप- विरहजाग्न्युपयुक्तदेहा गोपिकायें श्रीकृष्ण अनुग्रहप्राप्ति में अवग्रह नहीं चाहतीं हैं ।
अवग्रह रुकावट को कहते हैं ।
” अवे-ग्रहो वर्षे-प्रतिबन्धे”
{ अष्टाध्यायी ३।३।५१ }
” मैवं विभोर्हति भवान् गदितुं नृशंसं सन्त्यज्य सर्वविषयांस्तव पादमूलम्।
भक्ता भजस्व दुरवग्रह मा त्यजास्मान्
देवो यथादिपुरुषो भजते मुमुक्षून्॥
{ श्रीमद्भागवत १०।२९।३१ }
गति-अनुराग-स्मित-विभ्रम-ईक्षित के द्वारा गोपिकाओं का चित्त भगवान् श्रीकृष्ण के श्रीचरणों में समर्पित था,उन्हीं गोपीकाओं के दर्शन से ही बुद्धिसत्तम उद्धव को स्वरुपज्ञान अर्थात् प्रेमलक्षणा भक्ति की प्राप्ति हुई थी।
महाज्ञानी उद्धवजी प्रेमप्लावित प्रपन्न हो गये थे, उन्होंने व्रजवल्लरीयों के श्रीचरणारविन्दों में लगी हुई धूलि का वन्दन किया था ।
वन्दे नन्दव्रजस्त्रीणां पादरेणुमक्ष्णश:।
यासां हरिकथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम्॥
{ श्रीमद्भागवत १०.४७.६३ }
विचार करने पर लगता है कि विद्या प्राप्त करके यदि विद्वान् होने का अहंकार हुआ तो सारी विद्या निरर्थक हो गयी है, इसलिए हम सभी को चाहिए कि प्रपन्न भागवतजनों की सन्निधि में रहकर श्रीभगवान् से प्रेम कैसे हो, इसी संदर्भ में भगवद्भक्त श्री वैष्णवों से प्रार्थना करें जिससे उनका अनुग्रह प्राप्त हो।
यदि भगवान् से प्रेम { भक्ति } हो गया तो ज्ञान, वैराग्य तो स्वत: ही प्राप्त हो जायेगा।

About Post Author