वे पूरी जिंदगी निर्मल गंगा के लिए लड़ते रहे
वे पूरी जिंदगी निर्मल गंगा के लिए लड़ते रहे
काशी के महानायक श्री संकटमोचन मंदिर के पूज्य महंत प्रो०वीरभद्र मिश्र जी की 10 वीं पुण्यतिथि पर विशेष
अंतिम सांस तक वह एक योद्धा की तरह डटे रहे। जाते-जाते अपने साथ यह सपना ले गये कि एक न एक दिन पवित्र गंगा एकदम निर्मल होकर जरूर बहेगी। क्योंकि पवित्र नदी को बचाने और संवारने का जो जनाआंदोलन शुरू हुआ है, वह एक दिन जरूर रंग लाएगा। निर्मल गंगा के पर्याय बन चुके संकटमोचन मंदिर के तत्कालीन महंत प्रो. वीरभद्र मिश्र एक कुशल शिक्षक, पर्यावरणविद् और दूरदर्शी भी थे। 13 मार्च 2013 के अपराह्न जब उपचार के दौरान उन्होंने शरीर त्यागा तो, माना पूरे काशीवासियों की आंखें नम हो गयी और मन उद्वलित हो उठा।
सबकी जुबान पर एक ही बात एक साथ तीन व्यक्तित्व का निधन हो गया। काशी ने वीरभद्र को नहीं खोया, बल्कि गंगा की पीड़ को स्वर देने वाले गंगापुत्र को खोया। जो जैसे सुना वह उल्टे पांव तुलसीघाट की ओर दौड़ा भागा। उनका पार्थिव शरीर जैसे ही गंगा तट पर पहुंचा मानो…लहरे बेचैन हो उठी और गंगा उदास। शायद उन्हें भी अपना पुत्र खोने का आभास हो गया हो और आवाज दे रही हो कि मुझे दुसरे वीरभद्र मिश्र का आज से इंतजार शुरू हो गया। गंगा आंदोलन के प्रणेता होने के नाते काशी का जन-जन उन्हें गंगापुत्र के नाम से पुकारता था। संध्या वंदन से अनुशासित जीवन जीने वाले प्रो. मिश्र के मुख से रामनाम की रटन और मस्तिष्क में गंगा निर्मलीकरण का चिंतन। बीमारी के दौर में अपने इस खास सपने की चर्चा उन्होंने अपने मित्रों से भी की थी। १४ वर्ष की छोटी उम्र से ही गंगा से लगाव हो गया था। फिर तो उन्होंने पूरी जिंदगी अपने को गंगा का ही अभिन्न हिस्सा माना। वह कहते भी रहे कि वे गंगा के है और गंगा मईया उनकी अपनी है। ऐसे में स्वच्छ गंगा का अभियान मां को बचाने जैसा है। इस अभियान को एक न एक दिन जरूर सफलता मिलेगी। एक वीरभद्र नहीं रहेगा तो सैकड़ों वीरभद्र तैयार हो जायेंगे। क्योंकि गंगा को बचाना एक बड़ी सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करना भी तो है। इसलिए उन्होंने प्रदूषित हो रही गंगा की पीड़ा को आवाज देने के लिए संकटमोचन फाउण्डेशन की नींव रखी और पूरी दुनिया का ध्यान पहली बार प्रदूषित गंगा की ओर आकर्षित किया।
असि की बेबसी को दी जुबान
इंसानी ज्यादतियों के कारण तिल-तिल मर रही असि नदी (अब असि नाला) की बेबसी को पहली जुबान प्रो. वीरभद्र मिश्र ने दी। उन्होंने विलुप्त हो चली वाराणसी नाम की पूरक (वरूणा-असि) नदी पर उसके उद्गम को लेकर गंगा से उसके संगम तक की यात्राओं के जरिये उसकी दुर्दशा की जांच पड़ताल की और उसके मौन विलाम की ओर लोगों का ध्यान खिंचा। उन्होंने अपने एक विद्यार्थी से असि पर गंभीर शोध कराया और इसी विषय पर उसे पीएचडी भी करायी।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक बनायी पहचान
महज 9 वर्ष की उम्र में ही पिता बांके राम मिश्र के निधन के बाद प्रो. वीरभद्र मिश्र को महंती सौंप दी गयी। धर्म से बचपन से ही जुड़ाव होने के बावजूद भी उन्होंने तकनीक में शिक्षा हासिल की और धर्म और शिक्षा का सामानांतर गंगा प्रवाहित कर न केवल भारतीय संस्कृति को विदेशों तक पहुंचाया, बल्कि प्रदूषित हो रही नदियों की पीड़ा को लेकर भी विदेशी मेहमानों को जागरूक किया। गंगा प्रदूषण पर उनके विचार और ब्लू प्रिंट अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी सराहे गये और उनकी पहचान भदैनी मुहल्ले से निकलकर अंतर्राष्ट्रीय फलक तक जा पहुंची। बावजुद इसके उनकी सादगी और जनसेवा की भावना उनकी खूबी बनी रही।
सांस्कृतिक धरोहर भी बचायी
सांस्कृतिक प्रहरी के रूप में भी प्रो. मिश्र यूं ही अपनी पहचान नहीं रखते थे, उन्होंने सांस्कृतिक धरोहरों को बचाने और उसे संरक्षित करने की दिशा में भी जो प्रयास किये वह मिल का पत्थर साबित हुआ। उनकी जलायी अलख आज भी निरंतर प्रज्ज्वलित है। आज से करीब चार दशक पूर्व जब ध्रूपद विधा दम तोड़ रही थी और उसके गायक भूखमरी के कगार पर थे तो उनकी सुधि भी प्रो. वीरभद्र मिश्र ने ली। तब तुलसीघाट पर ध्रूपद तीर्थ बनाया और उससे आमजन को जोड़ा। धन की कमी आड़े आने के कारण उन्होंने राजघराने को संरक्षित करने का कार्य दिया और निरंतर ध्रुपद गायकों को एक अंतर्राष्ट्रीय फलक तक पहुंचाया।
समस्याओं का रखते थे ब्लू प्रिंट
प्रो. मिश्र केवल गंगा और असि की बेबसी ही नहीं बताते थे। वरन् उनकी सबसे बड़ी खुबी यह थी कि उनके पास ब्लू प्रिंट के रूप में समस्याओं का समाधान हुआ करता था। इसी वजह से दुनिया भर के नदी विशेषज्ञों ने गंगा निर्मलीकरण को लेकर पेश की गयी संकटमोचन फाउण्डेशन की ओर से योजनाओं को सराहते हुए उस पर एकमत मुहर लगायी थी। दुर्भाग्य है कि गंगा निर्मलीकरण के नाम पर तिजोरी भरने की मंशा रखने वाले सरकारी अमले ने जान बुझकर इस कारगर योजना को मूर्तरूप नहीं लेने दिया गया। हालात यह है कि आज भी गंगा सफाई के नाम पर ताम योजनाएं बन रही है, नतीजतन ‘डूब गयी करोड़ों की थैली और गंगा मैली की मैली।’