*महर्षि भृगु के पुत्र हैं देव शिल्पी भगवान विश्वकर्मा*

महर्षि भृगु का जन्म 5000 ईसा पूर्व ब्रह्मलोक-सुषा नगर (वर्तमान ईरान) में हुआ था. इनके परदादा का नाम मरीचि ऋषि था. दादाजी का नाम कश्यप ऋषि, दादी का नाम अदिति था. इनके पिता प्रचेता-विधाता जो ब्रह्मलोक के राजा बनने के बाद प्रजापिता ब्रह्मा कहलाये. अपने माता-पिता अदिति-कश्यप के ज्येष्ठ पुत्र थे. महर्षि भृगुजी की माता का नाम वीरणी देवी था. ये अपने माता-पिता से सहोदर दो भाई थे. आपके बड़े भाई का नाम अंगिरा ऋषि था. जिनके पुत्र बृहस्पतिजी हुए जो देवगणों के पुरोहित-देवगुरू के रूप में जाने जाते हैं. महर्षि भृगु द्वारा रचित ज्योतिष ग्रंथ ‘भृगु संहिता’ के लोकार्पण एवं गंगा सरयू नदियों के संगम के अवसर पर जीवनदायिनी गंगा नदी के संरक्षण और याज्ञिक परम्परा से महर्षि भृगु ने अपने शिष्य दर्दर के सम्मान में ददरी मेला प्रारम्भ किया.
महर्षि भृगु की दो पत्नियों का उल्लेख आर्ष ग्रन्थों में मिलता है. इनकी पहली पत्नी दैत्यों के अधिपति हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या थी. जिनसे आपके दो पुत्रों क्रमशः काव्य-शुक्र और त्वष्टा-विश्वकर्मा का जन्म हुआ. सुषानगर (ब्रह्मलोक) में पैदा हुए महर्षि भृगु के दोनों पुत्र विलक्षण प्रतिभा के धनी थे. बड़े पुत्र काव्य-शुक्र खगोल ज्योतिष, यज्ञ कर्मकाण्डों के निष्णात विद्वान हुए. मातृकुल में आपको आचार्य की उपाधि मिली. ये जगत में शुक्राचार्य के नाम से विख्यात हुए. दूसरे पुत्र त्वष्टा-विश्वकर्मा वास्तु के निपुण शिल्पकार हुए. मातृकुल दैत्यवंश में आपको ‘मय’ के नाम से जाना गया. अपनी पारंगत शिल्प दक्षता से ये भी जगद्ख्यात हुए.
भृगु पुत्र विश्वकर्मा के जन्मदिन को विश्वकर्मा पूजा, विश्वकर्मा दिवस या विश्वकर्मा जयंती के नाम से जाना जाता है. इस पर्व का हिन्दू धर्म में विशेष महत्व है. भगवान विश्वकर्मा को ‘देवताओं का शिल्पकार’, ‘वास्तुशास्त्र का देवता’, ‘प्रथम इंजीनियर’, ‘देवताओं का इंजीनियर’ और ‘मशीन का देवता’ कहा जाता है. विष्णु पुराण में विश्वकर्मा को ‘देव बढ़ई’ कहा गया है. यही वजह है कि हिन्दू समाज में विश्वकर्मा पूजा का विशेष महत्व है. हो भी क्यों न? अगर मनुष्य को शिल्प ज्ञान न हो तो वह निर्माण कार्य नहीं कर पाएगा. निर्माण नहीं होगा तो भवन और इमारतें नहीं बनेंगी, जिससे मानव सभ्यता का विकास रुक जाएगा. मशीनें और औज़ार न हो तो दुनिया तरक्की नहीं कर पाएगी।