डा राम मनोहर लोहिया डिग्री कॉलेज अध्यात्मपुरम में हिंदी दिवस का आयोजन

हिंदी दिवस के अवसर पर डा राम मनोहर लोहिया डिग्री कॉलेज अध्यात्मपुरम में हिंदी दिवस का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि यशवंत सिंह यश रहे। जो एक प्रसिद्ध कवि हैं। इस अवसर पर उन्होंने हिंदी को लेकर अपनी ताज़ा रचना सुनायी। सत्यदेव ग्रुप ऑफ कॉलेजेज ग़ाज़ीपुर के मुख्य प्रबंध निदेशक प्रो आनंद कुमार सिंह ने अपने वक्तव्य में हिंदी के स्वरूप का विस्तार से उल्लेख किया । उन्होंने अतीत काल से लेकर वर्तमान काल तक हिंदी के साथ ही भारत की भाषिक विकासयात्रा को समझाया। उनके वक्तव्य का सार निम्न है-
हिन्दी भाषा का जन्म सातवीं सदी में हुआ। यह अपभ्रंशों से पैदा हुई थी। अपभ्रंश भाषाओं का जन्म पालि और प्राकृत भाषा से हुआ था। ये भाषाएँ संस्कृत भाषा के समानांतर चल रही थीं। इसके भी पहले वैदिक संस्कृत थी। हो सकता है भाषा का एक देहाती रूप तब भी चलता रहा हो।क्योंकि प्राकृत का अर्थ होता है “प्रकृति का” यानी नेचुरल। और उसके बरक्स संस्कृत का अर्थ होता है — जिसे सुसंस्कृत कर दिया गया। यानी प्राकृत भाषा में से जितने हिस्से को सुसंस्कृत कर दिया गया। उसे संस्कृत कहा गया। ये संस्कृत भी दो तरह की है – एक तो वो जिसमें वेदों के मंत्र रचे गए जिसे वैदिक संस्कृत कहते हैं। और दूसरी संस्कृत वो है जिसमें वैदिक काल के बाद पुराण लिखे गए और जिसमें रामायण और महाभारत भी लिखा गया।इसे लौकिक संस्कृत कहते हैं। वैदिक संस्कृत ऋषि मुनियों की भाषा रही होगी। लेकिन सामान्य जनता की भाषा तब भी प्राकृत ही रही।इसी का एक रूप पालि है जिसमें छठी ईस्वी पूर्व बुद्ध और महावीर ने उपदेश दिये।

बुद्ध ने और महावीर के समय कुछ उपनिषदों की रचना भी हो रही थी । वे सब संस्कृत में हैं। उस समय संस्कृत राजाओं और शिक्षित जनों की भाषा थी। यानी पढ़े लिखे वर्ग की भाषा । जैसे आजकल हिंदी का एक रूप विद्वानों के बीच में है और एक रूप आम बोलचाल में है। मज़दूर भी हिंदी बोलता है और विद्वान भी लेकिन दोनों में फ़र्क़ है। लौकिक संस्कृत का समय ईसा से 1000 BCE से लेकर ईसा की 1000 AD तक फैला है ।
अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज के समय अफ़ग़ानिस्तान से मुहम्मद गोरी जब आया था 1193 AD में। तब से इस्लाम का राज्य आया। (वैसे इस्लाम का हमला भारत के पश्चिमोत्तर प्रांत पर या सिंध पर सन् 711 ईस्वी में हुआ था। लेकिन दिल्ली तक आते आते मुसलमान आक्रमण करने वालों को पाँच सौ साल लगे। जबकि अपने जन्म के सौ साल के भीतर ही इस्लाम में अधिकांश युरोप और पर्शिया तथा तुर्की पर अधिकार जमा लिया था।) । इन पाँच सौ सालों में इस्लामी आक्रमण करने वालों के हमले लगातार चलते रहते थे। वो दिल्ली पर अधिकार करना चाहते थे। बीच में सिंध और पंजाब पड़ता था।
यूँ तो लगभग दो हज़ार साल तक यानी ईसा के एक हज़ार साल पहले और ईसा के एक हज़ार साल बाद तक संस्कृत चलती रही। इसमें साहित्य और दर्शन रचा गया।आयुर्वेद और ज्योतिष तथा विज्ञान के अनेक ग्रंथ रचे गए। लेकिन 600 AD तक आते आते संस्कृत का प्रभुत्व कम होने लगा और अपभ्रंश भाषाएँ सामने आने लगीं। अपभ्रंश भाषा यानी संस्कृत का बिगड़ा हुआ रूप । भ्रष्ट रूप। पहले ही बताया कि प्राकृत भाषाओं का विस्तार पहले से था जिससे संस्कृत बनी थी। अब फिर से संस्कृत का रूप बिगड़ा और उसी से अपभ्रंश भाषाएँ बनीं।

दक्षिण भारत की चार भाषाएँ हैं— (तमिल मलयालम तेलुगू कन्नड़ ) – ये द्रविड़ भाषाएँ कहलाती हैं। इनमें तमिल सबसे पुरानी है। संगम लिट्रेचर का जन्म ईसा की तीसरी शताब्दी से मिलता है। यह तमिल में है। इसके साथ ही उत्तर पूर्व की मिजो मणिपुरी बोडो नागा खस भाषाओं का विकास एक तरह की वनवासी आदिवासी बोलियों से हुआ है। इसके साथ ही जहां जहां आदिवासी वनवासी रहे हैं उनकी अपनी आदिवासी बोलियाँ रही हैं। सामान्य तौर पर उनमें कोई लिखित साहित्य नहीं मिलता और उनकी कोई लिपि (script) भी नहीं है। जैसे राजस्थान और म प्र में भीलों की बोली भीली है। ये सब भी चलते रहे अपनी अपनी जगह पर। लेकिन अभी हम उनकी बात कर रहे हैं जिनकी अपनी लिपि थी और जिनका लिखित साहित्य है। और जिसमें राजकाज भी चला है। तो उस समय दक्षिण भारत और उत्तर पूर्वी भारत को छोड़कर हमारे देश के अलग अलग भागों में प्रांतों में अलग अलग प्राकृतें और अपभ्रंश भाषाओं का पहले से अस्तित्व था।
हिंदी का संबंध हिंदीभाषी प्रदेश से है। इसमें कुल दस प्रांत आते हैं—दिल्ली उत्तरप्रदेश बिहार मध्य प्रदेश राजस्थान हिमाचल छत्तीसगढ़ उत्तराखंड झारखंड हरियाणा । इनमें हिंदी की 18 बोलियाँ थीं। इनमें हरियाणा और दिल्ली में हरियाणवी और खड़ी बोली ( जिसमें मैं लिख रहा) थी। दिल्ली के पास ही मेरठ मथुरा और वृंदावन का क्षेत्र है। यहाँ ब्रजभाषा थी। अब भी है। यह धीरे धीरे हिंदी साहित्य की भाषा बन गयी थी और खड़ी बोली में अठारहवीं सदी में जबसे साहित्य लिखा जाने लगा तब तक चलती रही। दिल्ली के उत्तर में हिमाचल प्रदेश है। वहाँ की दो बोलियाँ हैं – कुमाऊँनी गढ़वाली। ब्रज क्षेत्र से नीचे ग्वालियर झाँसी सागर भोपाल जबलपुर तक बुन्देली चलती है। इटारसी से आगे खंडवा बड़वानी धार में निमाड़ी बोली है। यहाँ से मराठी और गुजराती का क्षेत्र शुरू होता है। उज्जैन इंदौर झालावाड़ में मालवी है जो राजस्थानी से निकली है। मेवाड़ी मेवाती जयपुरी बीकानेरी भी राजस्थानी बोलियाँ हैं। बिहार में भोजपुरी मगही मैथिली बोलियाँ हैं। उत्तर प्रदेश में दिल्ली मेरठ के पास खड़ी बोली लखनऊ के पास अवधी, बनारस में भोजपुरी, इलाहाबाद से रीवा सतना तक बघेली और उसके नीचे छत्तीसगढ़ी चलती है। ये सब बोलियाँ हिंदी की बोलियाँ हैं।
लगभग सात सौ से लेकर एक हज़ार AD के आसपास कुल तीन सौ वर्षों में इनमें से कोई बोलियों में साहित्य रचा गया । अवधी में रामचरितमानस लिखने वाले तुलसीदास , ब्रज में सूरसागर लिखने वाले सूरदास और मैथिली में विद्यापति बडे लेखक हुए। कबीर का साहित्य मिली जुली खिचड़ी भाषा में है। लेकिन उस पर भोजपुरी का प्रभाव भी है। यह हिंदी प्रदेश है। इसके बाहर जो प्रदेश है वहाँ की बोलियों और भाषाओं का जन्म भी अपभ्रंशों से ही हुआ । उसी समय यानी सातवीं सदी में। असमी बंगला और उड़िया और नेपाली अपभ्रंश की एक शाखा पूर्वी अपभ्रंश से निकली । इसी अपभ्रंश से बिहार की भोजपुरी मैथिली और मगही भी निकली। शौरसेनी अपभ्रंश से राजस्थानी गुजराती और पश्चिमी हिंदी तथा पहाड़ी बोलियाँ ( कुमाऊँनी और गढ़वाली ) भी निकलीं। ब्राचड़ अपभ्रंश से सिंधी पंजाबी निकलीं। महाराष्ट्री अपभ्रंश से मराठी निकली ।हिंदी प्रदेश के चारों ओर उसकी सीमा पर ये भाषाएँ हैं- पंजाबी कश्मीरी नेपाली असमी बांग्ला उड़िया मराठी गुजराती । ये भी अपभ्रंशों से निकली हैं। ये सभी अपभ्रंश भाषाएँ प्राकृत भाषाओं से निकली हैं। प्राकृत भाषाएँ साधारण जनता की भाषा रही। उस समय विशेष लोगों की भाषा संस्कृत रही।
जब इस्लामी यहाँ आए तो उनका परिचय हरियाणा दिल्ली राजस्थान की बोलियों को बोलने वाले लोगों से हुआ विशेष रूप से दिल्ली की बोली से। जब मुहम्मद गोरी ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया 1193 AD में तब दिल्ली में खड़ी बोली भी एक बोली की तरह चलता थी। इसका क्षेत्र सीमित था। यह एक बोली ही थी जैसे ब्रजभाषा अवधी भोजपुरी वग़ैरह। बाहर से आने वालों ने उसे ही हिंद की बोली समझा। उसे हिन्दवी कहा। इसी से बाद में हिंदी हो गया। बाहरी आक्रमणकारी चार भाषाएँ बोलते थे- यानी चार तरह के लोग थे- अरब के अरबी, फ़ारस या ईरान के फारसी, अफ़ग़ानिस्तान के अफ़ग़ानी या पश्तो और तुर्क के तुर्की बोलने वाले। इन्होंने दिल्ली के आसपास की बोलियों से संघर्ष किया युद्ध किया। लेन देन किया । शासन किया । तो इस तरह हिंदी में ये चार तरह के शब्द घुसने लगे। ये 1200 AD से 1700 AD तक चलता रहा। इसका प्रभाव ब्रज अवधी हरियाणवी बुंदेली पर उतना नहीं पड़ा जितना खड़ी बोली पर। मुसलमानों ने खड़ी बोली को अपना लिया और उसमें अपने शब्द मिला लिए। इस तरह एक खिचड़ी भाषा बनने लगी जिसे रेख्ता कहा गया। उसी में रहते रहते अरबी फ़ारसी पश्तो और तुर्की के शब्दों के मिलकर जज़्ब हो जाने से एक मिक्स भाषा पैदा हो गयी जिसे पहले रेख्ता ( खिचड़ी भाषा) और बाद में अठारहवीं शताब्दी में उर्दू कहा गया। मिर्ज़ा ग़ालिब अपने को रेख्ता का शायर कहता है। वह 1857 के विद्रोह के समय उपस्थित था।
एक बात और समझनी है। 12 वीं 13 वीं सदी में जब इस्लामी राजाओं ने दक्षिण को जीतने का अभियान चलाया तब वो अपने साथ इसी खड़ी बोली को लेकर दक्षिण भारत तक गए। आंध्र में गोलकुंडा में बीजापुर में हैदराबाद में इस भाषा का बहुत प्रचार हो गया इसे दक्कनी हिंदी कहा गया। इसलिए आज भी हैदराबाद में दक्खिनी हिंदी चलती है। वह एक दम उर्दू नहीं है लेकिन मिश्रित है। असदुददीन ओबैसी इसी भाषा में बोलता है। दक्खिनी हिंदी का प्रचार खंडवा बुरहानपुर गुजरात तक था। मुग़लों के समय में फ़ारसी राजभाषा थी। लेकिन आम जनता अपनी अपनी बोलियाँ बोलती रहती थी। आपस में ये मुग़ल फ़ारसी बोलते थे लेकिन उत्तर भारत की जनता से संवाद रेखता में और दक्षिण भारत में दक्खिनी में करते थे। अकबर के जमाने में थोड़ी छूट हो जाने से ब्रजभाषा का प्रभाव बढ़ने लगा था। कुछ मुग़ल राजा ब्रजभाषा में भी बोलते थे।

सातवीं शताब्दी में ही अलग अलग अपभ्रंशों से अलग प्रांतों में मराठी बंगाली सिंधी असमी गुजराती उड़िया नेपाली पंजाबी आदि भाषाएँ पैदा हुईं। तमिल मलयाली तेलुगू कन्नड़ – ये चार भाषाएँ पहले से थीं जिनकी परिवार अलग है। इनके आधार में भी संस्कृत की संरचना है। इसी तरह नागा ख़ास मिजो मणिपुरी बोडो आदि नार्थ ईस्ट की भाषाओं का जन्म आदिवासी भाषाओं से हुआ। मुग़लों और ब्रिटिश के पहले उत्तर भारत की जनता सातवीं सदी से पहले अपभ्रंशों में बोलती थी। उसके पहले प्राकृत भाषाओं में। सातवीं से ग्यारहवीं सदी में हिंदवी में। या हिंदी में। लेकिन पंजाब के लोग पंजाबी में बंगाल के लोग बंगाली में मराठा लोग मराठी में में और इसी तरह अलग अलग क्षेत्रों के लोग अलग अलग जिनका नाम पहले लिखा है। हिंदी लगभग एक हज़ार साल से बोली जा रही है। हिंदी के कुल 10 प्रदेश हैं जिनका नाम ऊपर लिखा है। उनमें 18 बोलियों का जन्म हुआ। इन 18 बोलियों के लिए हिंदी एक ब्लैंकेट टर्म की तरह है। जैसे तुलसी ने अवधी में। रामचरितमानस लिखा सब्र ने ब्रजभाषा में सूरसागर लिखा कबीर ने भोजपुरी में मीरा ने राजस्थानी में विद्यापति ने मैथिली में ईसुरी ने बुंदेली में अमीर खुसरो ने खड़ी बोली में लिखा। ये साहित्य मिलता है । दूसरी बोलियों का साहित्य नहीं मिलता । हिंदी को सभी बोलियों का नाम है लेकिन आज़ादी की लड़ाई में खड़ी बोली हिंदी का प्रयोग सभी नेताओं ने किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र जैसे साहित्यकारों ने खड़ी बोली में साहित्य रचा । अवधी और ब्रजभाषा पीछे चली गयी जो तब तक कविता की भाषा के रूप में चल रही थी। अठारहवीं सदी से खड़ी बोली हिंदी का प्रभाव बढा। इसी में अख़बार निकले। अंग्रेज़ी को चुनौती इसी हिंदी में दी। इसलिए खड़ी बोली हिंदी को स्वीकार कर लिया गया । सबसे सुंदर बात ये हुई कि हिंदी प्रदेश की सभी बोलियों ने खड़ी बोली को स्वीकार कर लिया और हिंदी बोलने वाली जनता ने अपनी बोली के साथ स्टैण्डर्ड रूप से राजकाज के लिए शिक्षकों लिए खड़ी बोली को महत्व दिया। जबकि पहले यह भी एक बोली थी जो दिल्ली के आसपास तक सीमित थी।
संविधान के अनुच्छेद 343 (1) में यह कहा गया कि हिंदी राजभाषा होगी और उसकी लिपि देवनागरी होगी। लेकिन इसी अनुच्छेद के (2) में कहा गया कि जब तक हिंदी राजकाज के लिए ठीक से तैयार नहीं हो जाती तब तक अगले पंद्रह वर्षों के लिए अंग्रेज़ी चलती रहेगी। यानी 1950 से 1965 तक । फिर एक कमीशन बनेगा जो हिंदी की स्थिति का पता लगाएगा कि यह कहाँ तक बढ़ी है। और इस तरह हर सरकार अगले पंद्रह वर्षों के लिए अंग्रेज़ी को बढ़ा देती है। प्रो आनंद कुमार सिंह ने अंत में यह कहा कि
हिंदी दिवस पर हमें संकल्प लेना होगा कि अंग्रेज़ी को हटाकर हिंदी को राजभाषा के रूप में आदर दिया जाय और अंग्रेज़ी की निर्भरता को समाप्त किया जाय । यही देश के हित में है। इसी से हमारी राष्ट्रीयता का विकास भी संभव हो सकेगा॥ कार्यक्रम का संचालन प्राचार्य डॉ विजेंद्र सिंह ने किया ।