June 22, 2025

सनातन धर्म के मानने वाले हिन्दुओं का सर्वमान्य ग्रन्थ वेद है- स्वामी राजनारायणाचार्य

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सनातन धर्म के मानने वाले हिन्दुओं का सर्वमान्य ग्रन्थ वेद है- स्वामी राजनारायणाचार्य

यदि कोई हिन्दू है तो उसे वेदों की आज्ञा का पालन करना परम आवश्यक है,क्योंकि वही धर्म है।
ज्ञातव्य है कि वेदों की रचना किसी व्यक्ति ने नहीं की है,इसीलिये वेदों का कोई रचनाकार नहीं है।
वेद तो अपौरुषेय है,स्वत: प्रमाण है, भगवान् श्रीमन्नारायण का श्वास है जो परमेष्ठी चतुर्मुख ब्रह्मा के मुख से निकला हुआ है।
वेद तो सभी के लिये है,सभी वेदों के लिए है।
ध्यान रखना मनुष्यों की अनेकों जाति न होकर मनुष्य जाति तो एक ही है।
मनुष्य जाति जन्म से ही चार वर्णों में बंटा हुआ है।
जन्म से ही उसके गुण एवं कर्म निर्धारित श्रीभगवान् के द्वारा किया गया है।
ब्राह्मण जन्म से ही सहनशील होता है उसके ६ कर्म हैं- वेदों को पढ़ना,पढ़ाना।
यज्ञ स्वयं करना एवं यज्ञों को सम्पादित कराना।
दान स्वयं करना तथा दान लेना।
क्षत्रियों का स्वभाव तो जन्मजात कठोर होता है परन्तु उद्देश्य स्वयं मरकर भी समाज की रक्षा करना होता है।
वेद पढ़ना,यज्ञ करना तथा दान देना इनके कर्म हैं ।
वैश्य स्वभाव से ही विनम्र तथा व्यापार में दक्ष होते हैं।
कृषि,व्यापार,गायों का पालन,दूध-दही-घी का व्यापार,उद्योग,ब्याज पर पैसे देना आदि इनके कर्म हैं।
शूद्र जन्म से ही बलवान,साहसी,सेवाभाव वाले होते हैं।
यज्ञ करवाना,अमंत्रक पूजा-पाठ,श्राद्ध करना,किसी वस्तु का निर्माण करना,शिल्प,वास्तु,स्थापति का कार्य करना इनके स्वाभाविक कर्म हैं।
वेदों के अनुसार मानव शरीर के चार अविभाज्य अंगों में मस्तक तो है ब्राह्मण,हाथ है क्षत्रिय,कमर से लेकर जँघे तक भाग है वैश्य तथा पैर है शूद्र ।
इन चारों अंगों में रक्त का प्रवाह एक ही है तो बड़ा-छोटा का झगड़ा क्यों ?
आर्ष ऋषियों ने शूद्रों की श्रेष्ठता स्थापित करने के लिये पैरों की पूजा का विधान स्थापित किया।
माता-पिता,गुरु,श्रेष्ठजनों की पाँव पूजा होती है।
ध्यान रहे मस्तक का कार्य हाथ नहीं,हाथ का कार्य कमर नहीं तथा कमर का कार्य पैर नहीं कर सकता, क्योंकि
सभी के स्वभाव और कर्म तो परमात्मा प्रदत्त है।
‘ चातुर्वर्ण्यम्मयासृष्टम्’
{ श्रीमद्भगवद्गीता }
मनुष्यमात्र के लिये
वेदों की आज्ञा –
“उत्थातव्यं जागृतव्यं
योक्तव्यं भूतिकर्मसु।
भविष्यतीत्येव मन:
कृत्वा सततमव्यथै:॥”
अर्थात् अब तो जागो,उठो श्रीभगवान् की शरणागति करो तथा दैन्यभाव से भगवदाश्रित होकर भगवद्दत्त साधनों का उपयोग करते हुये निश्चय करो कि मैं अपने जीवन में सब कुछ कर सकता हूँ।
ये श्रुति का चारों वर्णों के लिये प्रोत्साहन है।
सबसे परे पुरुष अर्थात् नारायण हैं, उनसे परे कोई नहीं है-
पुरुषान्न परं किंचित् सा काष्ठा सा परा गति:॥
{ कठोपनिषद् १.३.११ }
उन्हीं भगवान् के श्रीचरणों के आश्रित होना मनुष्य जाति का परम कर्तव्य है ।कतिपय लोग मान बड़ाई पाने के लिये दिव्य ग्रथों को ही जलाकर राष्ट्र एवं धर्म के साथ द्रोह करते हुए तुच्छ राजनीति में जीवन का बहुमूल्य समय नष्ट मत कर रहे हैं ।
सनातनधर्म अनेकता में एकता लेकर अनादिकाल से चला आरहा है।
सनातनधर्म को माननेवाले हिन्दू बन्धुओं से आग्रह करता हूँ कि किसी के बहकावे में आकर अपने धर्म की निन्दा न तो सुनें न स्वयं ही करें।
यदि आप धर्म की रक्षा करेंगे तो निश्चित ही धर्म द्वारा आप सभी की भी रक्षा होगी।
श्रीरामचरितमानस को ७०० वर्षों से पढ़ते पूर्वज लोग आ रहे हैं,किसी को भी दोष इसमें नहीं दिखाई पड़ा,अब दोष विधर्मी नेताओं को दिखाई पड़ रहा है,पर वे कभी भी सफल नहीं हो पायेंगे।
श्रीरामचरितमानस समतामूलक भक्तिप्रद ग्रन्थ है जो दुसरों के हित को ही सनातनधर्म मानता है।
॥*परहित सरिस धरम नहीं भाई*॥
विवेक से कार्य करना चाहिए ।
विवेचन को विवेक कहा जाता है-‘ विवेचनं विवेक:’।
अपने जीवन में जो प्रमाद है, भूल है, आसवधानी है,वही है मृत्यु-
‘प्रमादं वै मृत्युं ब्रवीमि।’
{ महाभारत उद्योगपर्व ४२.४ }
गोस्वामी तुलसीदास जी विनय-पत्रिका में लिखते हैं-
‘ चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु, रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई।
हेतु रहित अनुराग रामपद बढ़ै अनुदिन अधिकाई।।’ ( १०३ )
शरणागत का मन तो सदैव श्रीभगवान् की ओर बढ़ता है,यदि मन में चाह बनी हुई है, मन विषयी हो रहा है तो आत्मनिरीक्षण करने की आवश्यकता है, क्योंकि विषयी मन ही बन्धन का कारण है,अन्यथा श्रीभगवान् का अंश जीव बन्धन में पड़े ही क्यों ?
श्रीमद्भागवत में श्रीब्रह्माजी कहते हैं –
‘ चेत: खल्वस्य बन्धाय मुक्तये चात्मनो मतम्।
गुणेषु सक्तं बन्धाय रतं वा पुंसि मुक्तये॥
{ ३.२५.१५ }

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