विद्या का स्वाभाविक गुण विनम्रता है- जगद्गुरु रामानुजाचार्य स्वामी राजनारायणाचार्य

विद्या का स्वाभाविक गुण विनम्रता है-
जगद्गुरु रामानुजाचार्य स्वामी राजनारायणाचार्य
मनुष्यमात्र का कल्याण इसी में सन्निहित है कि वे अपने में पात्रता लावे, सुपात्र बने,क्योंकि कुपात्र के लिये तो विद्या,सम्पत्ति,सम्मान ये सारी चीजें उसके विनाश के कारण बनती है,जबकि वही चीजें सुपात्र को मिले जावे तो उसके अभ्युदय का कारण बन जाती है।
पात्रभेद से ‘ स्वाति’नक्षत्र की बुँदें सीप में जाकर मोती, केले के पुष्प में कपूर बन जाती है,जबकि साँप के मुख में जाकर हलाहल विष बन जाती है।
विद्या का स्वाभाविक गुण विनम्रता है –
‘ विद्या ददाति विनयम् ‘ जिस प्रकार से पृथ्वी का गुण गन्ध है-
‘तत्र गन्धवति पृथ्वी’ उसी प्रकार से विद्या का स्वाभाविक गुण विनम्रता है।
कुपात्र यदि विद्वान् हो जावे तो,उससे उसका अभिमान ही बढ़ता है,न कि वह विमुक्ति को प्राप्त करता है।
परम सन्त श्रीडोंगरेजी महाराज कहते थे – ‘अयोग्य को ज्ञान मिलने से उसका अभिमान बढ़ता है। ज्ञान तो अभिमान मारने के लिये है। अभिमान को बढ़ाने के लिये ज्ञान नहीं है। किसी को मूर्ख समझने के लिये ज्ञान नहीं है।सर्व में भगवान् का दर्शन करने के लिये ज्ञान है।अस्तु।
ध्यान रहे – कदाचित् कुछ सत्कर्म होवे तो उसका अभिमान न आने पावे।
ऐसा अनुसन्धान करे कि ये सत्कर्म तो मेरे श्रीगुरुदेव ने कृपा कर मेरे जैसे नासमझ से करा दिया है,मुझे तो इसे श्रीठाकुरजी के दिव्य पादपद्मों में समर्पित करना है।
संकल्प करे – कृतेन अनेन नित्यभगवदाराधनेन भगवन्त: श्रीलक्ष्मीवेंकटेश्वरा: प्रीयन्तां न मम।
मैनें जो कुछ मनसा,वचसा,कर्मणा भगवन्मुखोल्लास {श्रीभगवान् की प्रसन्नता } के लिये तीर्थ, व्रत, दान, यज्ञ, स्वाध्याय, देव -पितृकार्य, नित्य नैमित्तिक कर्मरुप भगवदाराधन किया है,वे सभी कर्म हमारे श्रीगुरुदेव की कृपा से पूर्ण सनातन ब्रह्म श्रीमन्नारायण को प्राप्त हो जावे।
जगद्गुरु रामानुजाचार्य स्वामी राजनारायणाचार्य