June 23, 2025

भगवान् श्रीमन्नारायण सदैव ही प्रसाद देने के लिए तत्पर रहते हैं -स्वामी राजनारायणाचार्य

 

भगवान् श्रीमन्नारायण सदैव ही प्रसाद देने के लिए तत्पर रहते हैं ‘ प्रसादाभिमुखम्’। वे भगवान् ही बहुत सुन्दर, शरण्य तथा करुणा,दया के समुद्र हैं ।
वेदों में नृम्ण शब्द का प्रयोग अतिशय सुन्दर के अर्थ में हुआ है ।
‘ नृम्णं’ को भोजपुरी में ‘ निमन बा ‘ अर्थात् सुन्दर है,ऐसा प्रयोग मिलता है।
‘ नृम्णं शरण्यं करुणार्णवम्’।
भगवान् श्रीमन्नारायण को सर्वात्म-समर्पणपूर्ण शरणागति करने पर तुम जो भी चाहोगे,वही चीज़ तुम्हें मिल जायेगी फिर इधर-उधर देहात्मवादी जनतांत्रिक शासनकाल के राजाओं में नैष्ठिक होकर उससे सम्बन्ध जोड़ने की क्या आवश्यकता है ।
जनन्याभिहितः पन्थाः स वै निःश्रेयसस्य ते।
भगवान् वासुदेवस्तं भज तत्प्रवणात्मना॥
{ श्रीमद्भागवत ४।८।४० }
भगवान् श्रीरामानुजाचार्य जी का ये तीन सूत्र ही त्रिगुणातीत परमपद को अनायास ही प्राप्त करा सकता है।
१. उद्देश्य को दुर्लभ मत समझो।
२. अपने द्वारा किये गये पापों का चिन्तन मत करो।
३. साधन और साध्य के केवल श्रीभगवान् ही हैं,वे नारायण केवल अपनी निर्हेतुक कृपा से ही प्राप्त होंगे-इस बात का ध्यान रखो।
श्रीभगवान् के कृपापात्र को ‘ पार्थ’ कहा जाता है- पः= परमेश्वरः अर्थः= प्रयोजनं यस्य असौ पार्थः।
ध्यान रहे पृथापुत्र पार्थ दुसरे हैं, यह पार्थ अर्थात् परमेश्वरार्थ जीवन दुसरा है।
घमण्डी शासकों को श्रीमद्भागवत जी में अपार्थ,अपगतार्थ कहा गया है।
कभी-कभी इतिहास को भी देखना चाहिए।
मेरी समझ से मृत्यु की हँसी को भी इतिहास कहा जाता है, क्योंकि इति मृत्यु का बोधक है,जबकि हास हँसी का बोधक है।
मृत्यु ने इस संसार के साथ जो उपहास किया है,उसे ही इतिहास कहा जाता है ।
इतिहास गवाह है कि देहात्मवादी जिन लोगों ने पद-प्रतिष्ठा-धन-ऐश्वर्यों को पाकर अभिमानाभिभूत जीवन यापन की चेष्टाएँ कीं हैं, वे लोग केवल ह्रास को ही प्राप्त किए हैं उनके जीवन में कभी भी परम उल्लास हुआ ही नहीं।
ध्यातव्य है कि जो सामर्थ्यवान व्यक्ति किसी से भी अन्य व्यक्ति से सम्मान की अपेक्षा न रखते हुए छोटे-बड़े सभी लोगों को समयानुकूल सम्मान देते रहता है,उसी व्यक्ति का जीवन सफल हो जाता है जिसके फलस्वरूप वह सर्वमान्य हो बन जाता है।
‘शम्’

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