स्व0लालमुनी चौबे की पुण्यतिथि पर विशेष
स्व0लालमुनी चौबे की पुण्यतिथि पर विशेष
लालमुनी चौबे पिता हरवंश चौबे, जिला कैमुर, प्रखंड चैनपुर, ग्राम कुरई। यह नाम पता उस व्यक्ति का है जिनकी आज पुण्यतिथि है। उनको दिवंगत हुवे धीरे धीरे कई वर्ष ब्यतीत हो गया। कभी उन्होंने 1969 में जनसंघ पार्टी से उम्मीदवार के रुप में पहली बार दीपक छाप से चुनाव जीत बिहार की राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी थी। इनकी लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस विधानसभा से यह चार बार विधायक चुने गए। वर्ष 1995 में वे यहां से चुनाव हार गए। क्योंकि वर्ष 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद उनके क्षेत्र के मुसलमान नाराज थे। चैनपुर विधानसभा क्षेत्र में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या बहुत ज्यादा है। जिसका खामियाजा इनको भुगतना पड़ा। इसके बाद वे वर्ष 1996 में बक्सर लोकसभा से चुनाव लड़े। जहां से उनकी जीत का सफर प्रारंभ हुआ। अपनी इमानदारी के लिए वे हमेशा चर्चा में रहे।
सौ रुपये लेकर उतरे थे चुनाव मैदान में
राजनीति में इमानदारी की मिसाल पेश करने वाले लालमुनी चौबे किसान के बेटे थे। उनके पास चुनाव लडऩे के लिए रुपये नहीं थे। पिता ने उन्हें राजनीति करने से मना किया। पर मां ने उन्हें सौ रुपये दिए। वे विधायक बने तो अपनी मां को दर्शन कराने मंदिर ले गए। यहां से उनकी राजनीति का सफल दौर प्रारंभ हुआ। अपने राजनीतिक जीवन में वे हमेशा कम खर्च में चुनाव जीतने वाले नेता के रुप में भी जाने जाते रहे।
1974 के आंदोलन में दिया था इस्तीफा
वर्ष 1974 में जेपी का आंदोलन चरम पर था। लालमुनी चौबे पहले नेता थे। जिन्होंने विधानसभा की सदस्यता से त्यागपत्र देकर आंदोलन में हिस्सा लिया। 1975 में जब देश में आपात काल लागू हुआ तो उन्हें वाराणसी से गिरफ्तार किया गया था। पुलिस से बचने के लिए उन्होंने गंगा में छलांग लगा दी। तैर कर दूसरे घाट पर निकल गए। पर पुलिस ने उनको गिरफ्तार कर चौका घाट जेल में रखा।
1977 में बने स्वास्थ्य मंत्री
जब बिहार में अगली सरकार बनी तो उन्हें राज्य का स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया था। उस समय कर्पूरी ठाकुर सीएम थे। बाद में दलगत असंतोष के कारण उनकी जगह रामसुंदर दास बिहार के सीएम बने। इस दौर के राजनेतओं में लालमुनी चौबे सबसे स्वच्छ छवि के युवा नेता माने जाते थे।
अख्खड व फक्कड़ स्वभाव के थे चौबे
लालमुनी चौबे का जन्म सरकारी दस्तावेजों के अनुसार 6 सितम्बर 1942 में हुआ था। छात्र राजनीति के दौरान ही उनका संपर्क अटल बिहारी वाजपेयी से हुआ। वे उनके काफी नजदीक रहे। उनको जानने वाले लोग बताते हैं कि स्व: चौबे स्वभाव से अख्खड़ थे। जिसका परिणाम रहा कि उनके राजनीतिक जीवन में कभी रुपये की लेनदेन आरोप नहीं लगा। वे कहीं भी, किसी के यहां रहने खाने में गुरेज नहीं करते थे। अर्श पर जाकर भी वे हमेशा फर्श पर सोते थे। चुनाव अभियान के दौरान वे हमेशा शहर के स्टेशन के पास स्थित चौरसिया लाज में ठहरते थे। छोटे कमरे में पलंग का बिस्तर हटा कंबल बिछा बेड़ पर सो जाते थे। फक्कड़ का यह उनका स्वभाव आजीवन बना रहा।
अपनों को भी नहीं दी तरजीह
बिहार भाजपा की राजनीति में वे कद्दावर नेता थे। बावजूद इसके उन्होंने कभी भी अपनों को राजनीतिक लाभ नहीं दिलाया। जिसका नतीजा यह है कि आज उनके दौर या उनके बाद राजनीति में आए हर बड़े नेता के परिवार से लेकर बेटे तक राजनीति में सक्रिय हैं। पर उन्होंने कभी भी इसकी वकालत नहीं की। उनके बड़े पुत्र हेमंत चौबे जो पिछले तीन विधानसभा चुनाव से पार्टी का टिकट लेने के लिए लगे हैं। आजतक पिता ने उनकी पैरवी पार्टी से नहीं की। उनके बारे में एक आम धारणा थी। वे न तो किसी की पैरवी करते थे न किसी का विरोध। अपनी चुनावी सभा में भी उनके भाषण की शुरुआत इन वाक्यों से करते थे। जो वोट दे उसका भी भला, जाे न दे उसका भी भला।
जीत का दंभ व हार का नहीं होना चाहिए मलाल
वर्ष 2009 में जब वे लोकसभा चुनाव हार गए। मतगणना के अगले दिन शहर चर्चा चल रही थी। मतगणना में धांधली की बात उठ रही थी। राजद उम्मीदवार जगतानंद सिंह चुनाव जीत गए थे। दो हजार से भी कम मतों के अंतर से उनकी जीत हुई थी। जिसको लेकर तरह-तरह की बातें सामने आ रहीं थी। तब उन्होंने कहा था। राजनीति करने वाले व्यक्ति को कभी जीत का दंभ व हार का मलाल नहीं करना चाहिए। साथ ही परमात्मा में अपना विश्वास बनाए रखना चाहिए। आज जब लालमुनी चौबे हमारे बीच नहीं हैं। ऐसे में उनके साथ गुजरे कुछ पल हमारे सामने हैं। उनका जन्म 6 सितम्बर 1942 को हुआ था। मृत्यु 25 मार्च 2016 को। उनकी मौत पर देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी दुख जताया था।यह उनके राजनीतिक कद को दर्शाता है।