June 24, 2025

अथर्वा युगीन विमर्श की महाकविता है – प्रो आनंद कुमार सिंह

बीएचयू, वाराणसी। “अथर्वा इतिहास, मिथक और फैन्टेसी से मिलकर महागल्प की शैली में लिखी कृति है, जो युगीन विमर्श को भी यथासंभव साकार करती है।लगभग पचीस वर्षों की लंबी रचना अवधि के दौरान इस कृति ने यह भी कोशिश की है कि समकालीन कविता की वे संभावनाएँ भी साकार हो सकें जो हिंदी कविता के वादोनुमुखी होते जाने से हाशिए पर चली गयी थीं ।

अज्ञेय और मुक्तिबोध के बाद हिंदी कविता की धारा में परम्परा के उज्ज्वल और उदात्त अंशों को जोड़ने के उपक्रम में यह रचना अस्तित्व में आ सकी है।” यह बात हिन्दी विभाग बी एच यू में ग़ाज़ीपुर से आए आमंत्रित अतिथि लेखक और कवि आनंद कुमार सिंह ने कही। वे विभाग के नवगठित ‘शोध समवाय’ द्वारा आयोजित ‘लेखक से मिलिये और परिचर्चा’ कार्यक्रम में बोल रहे थे।

उन्होंने अपनी काव्य कृति अथर्वा की रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए उस के कुछ महत्वपूर्ण अंशों का पाठ भी किया।

अध्यक्षता करते हुए हिंदी के विभागाध्यक्ष प्रो सदानंद शाही ने कहा कि अथर्वा गहरे अनुसंधान से रचित कृति है जिसमें स्थानीयता के साथ विश्व दृष्टि भी मौजूद है। पृथ्वी को बचाने की अभीप्सा इस पूरी कृति में विद्यमान है जो इसका स्थायी भाव बनकर उभरा है। यह कृति विचारों भावनाओं और आख्यानों का महाकाव्यात्मक कोलाज रचती है जिसमें अर्थसंकेतों की अनेक स्तरीय परतें उभरती हैं ।

हमारे समय से टकराती हुई वह धर्म, समाज और राजनीति के चालू व्याकरण से बाहर पांडुलिपियों के रोचक शिल्प से ज्ञान-संवेदना के कुछ मूल्यवान अंशों को वह हमारे सामने रखकर हमें सोचने के लिए विवश करती है। कृति की सफलता इस बात में है कि वह लोकोत्तर बातचीत करते हुए भी अंततः इस पृथ्वी की कविता बनकर सामने आती है क्योंकि उसके मूल में पृथ्वी के दुख धँसे हुए हैं। उन दुखों का समाधान पाने की गरज से आनंद सिंह ने इतना बौद्धिक श्रम किया है।

प्रो आनंद वर्धन शर्मा ने अथर्वा की रचना प्रकृति पर अपने विचार व्यक्त किये। उन्होंने कहा कि कामायनी की शृंखला में इसे मौजूदा सभ्यता विमर्श के रूप में देखने की ज़रूरत है। यह कृति उस संवेदना को बचाने के लिए संघर्ष कर रही है जो आज की सभ्यता में कहीं खो गयी है।

प्रो मनोज कुमार सिंह ने अथर्वा को इतिहास के सूत्रों से सृजित कृति बताते हुए कहा कि कवि ने इसे बेहद श्रम से रचा है। इस कृति का नायक अथर्वा नहीं बल्कि दीर्घतमा है जो अथर्वा के साहचर्य में क्रमशः रूपांतरित हो रहा है। इतिहास के वातायन से यह कृति सारे भारतीय इतिहास का विहंगावलोकन करती है और स्पष्ट करती है कि स्वकेंद्रित विकास के कारण मानवता आज संकटग्रस्त है। सबके सुख में अपने सुख को जोड़कर हमें सभी जीवों के सुख को विस्तृत बनाने के लिए यह कृति सदा प्रासंगिक बनी रहेगी। इस कृति के अंत में प्रजातंत्र के विषय में जो चर्चाएँ पात्रों के माध्यम से आयी हैं वो हमारी समकालीन राजनीतिक विडंबनाओं को भी दूर तक रेखांकित करती हैं। प्रो नीरज खरे ने रचना के स्वरूप पर चर्चा करते हुए कहा कि यह एक ओर चंपू काव्य लग सकता है तो काव्य नाटक भी, पर इसमें कथा की एक सूत्रता न होकर कथाओं का आभास या कोलाज है। यह स्वयं विधाओं की शास्त्रीयता का अतिक्रमण कर अपनी जगह खुद बनाएगी,लेकिन इसे पढ़ने के लिए पाठकीय तैयारी चाहिए।

संचालन करते हुए डॉ अजीत कुमार पुरी ने इस कृति के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि भारतीय ज्ञान परम्परा को साहित्य की आँख से देखते हुए अथर्वा प्राचीन, मध्यकालीन तथा आधुनिक भारत के अंतर्सूत्रों को सुलझाती प्रतीत होती है। वैदिकों और बौद्धों के पारस्परिक द्वन्द्व को भी यह कृति आलोचनात्मक विवेक से इस तरह संभव बनाती है जिससे दोनों दृष्टियों के बीच समन्वय स्थापित हो सके। धन्यवाद ज्ञापन शोध छात्र मेवालाल ने किया। इस अवसर पर विभाग के अध्यापक एवं छात्र छात्राएँ मौजूद थे।

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