मनुष्य जिसे विकास समझकर ढोल पिट रहा है,समझ रहा है कि विश्व विकसित हो चुका है,पर ऐसा है नहीं – स्वामी राजनारायणाचार्य

मनुष्य जिसे विकास समझकर ढोल पिट रहा है,समझ रहा है कि विश्व विकसित हो चुका है,पर ऐसा है नहीं –
स्वामी राजनारायणाचार्य
मनुष्य जिसे विकास समझकर ढोल पिट रहा है,समझ रहा है कि विश्व विकसित हो चुका है,पर ऐसा है नहीं ।केवल भ्रम की स्थिति बनी हुई है,विश्व में ह्रास होते जा रहा,मानवता मिटती जा रही है।
दैवी सम्पत्ति,आश्रमधर्म, वर्णधर्म,स्त्रीधर्म,सामान्यधर्म,राज्यधर्म, प्रजाधर्म का लोप होते जा रहा है।
विश्व का सबसे बड़ा जनतांत्रिक देश भारत के कण-कण में भगवती सीता का परम आदर्श समाया हुआ था परन्तु आज उस देश में मातृशक्ति नारियों के घोर अपमान करने हेतु भारत विरोधी गतिविधियों में संलिपप्त लोगों द्वारा विकसित होने का दावा करते हुए समलैंगिक,परालैंगिक जैसे घृणास्पद मतवाद की माँग हो रही है फिर भी सनातनधर्म के स्वयंभू आचार्य माननेवाले हिन्दू राष्ट्र होने की भविष्यवाणी तो करते हैं परन्तु इस बिन्दु पर ध्यान नहीं जा रहा है।
कुछ स्वयंभू आचार्य अपनी प्रतिभा का जनसंसद में प्रसारण करते हुए दिव्य शास्त्रों के संशोधन पर उतारू हैं किन्तु उन्हें समाज में विकृति आये दिन बढ़ती जा रही है,विकास के नाम पर समाज में विघटन,स्वेच्छाचार बढ़ते जा रहा है,इसे समाप्त कर मर्यादा स्थापित करने के संदर्भ में निर्वचन करने का समय नहीं मिल पा रहा है।
कुछ धर्माचार्य केवल हम ही सबसे बड़े एवं प्राचीन आचार्य हैं,इसे ही सिद्ध करना परम पुरुषार्थ मान रहे हैं।
धर्माचार्यों द्वारा शम,दम,तितिक्षा का पाथेय लेकर जन-जन में ये बताने की आवश्यकता है कि श्रीरामायण,श्रीरामचरितमानस, श्रीमद्भगवद्गीता,श्रीमद्भागवत आदि ग्रंथों में वर्णित जीवन शैली ही वास्तव में मानवमात्र का विकास है।
मैंने कल्याण पत्रिका के किसी अंक में पढ़ा था जिसे प्रसंगवश उद्धृत किया हूँ-
एक नास्तिक ने प्रश्न किया-
‘ यदि विज्ञान की परखनली में साबित कर दो कि ईश्वर है,तो मैं मान लूँगा।
अमेरिका के विद्वान् मोरिसक्रेसी ने उत्तर दिया –
‘ विज्ञान की बात क्या करते हो,जिस धरती पर तुम हो यह धरती सदा साढ़े ६६ अंश के कोण पर झुकी हुई अनवरतरूप से चल रही है।
यदि धरती ९० अंश के कोण पर आ जावे तो जीव की संज्ञा ही समाप्त हो जायेगी।
पृथ्वी,चन्द्रमा,सूर्य,तारे करोड़ों-आकाशमण्डल में अपनी-अपनी धुरी पर चल रहे हैं,इन सबको चलानेवाले कौन वैज्ञानिक है ?
जिसे आज विज्ञान कहा जाता है, वास्तव में वह है सामान्य ज्ञान,विज्ञान तो है स्वंय को जानना उसे मानते हुए अपने आचरण से मानवमात्र में आदर्श स्थापित करना।
पूर्ण सनातनब्रह्म भगवान् श्रीनारायण के वैकुण्ठ लोक को सूर्य, चन्द्रमा,विद्युत,अग्नितेज प्रकाशित नहीं कर पाता अपि तु उस लोक के प्रकाश से स्वयं प्रकाशित होता है उन्हीं श्रीमन्नारायण का यथार्थ बोध होना ही विज्ञान है।
‘ न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्नि:।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥
{ कठोपनिषद् २.३.१५ }
जिसे विज्ञान कहा जा रहा है,वास्तव में वह अपूर्ण है।
आज का कोई भी वैज्ञानिक भगवान् के भण्डार से कुछ लिए बिना कुछ बना नहीं सकता है।
*भगवान् सीताराम के परम आदर्श पर चलना ही विश्व का सर्वांगीण विकास है।*
भगवान् श्रीराम का दिव्य चरित्र ही सनातनधर्म का प्राण है।
उन्हीं परमात्मा की शरणागति ही विज्ञान है जिससे मानवता का ह्रास न होकर सर्वथा विकास हो जाता है।
मसकहि करइ विरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन॥
जो चेतन कहँ जड़ करइ जड़हि करइ चैतन्य।
अस समर्थ रघुनायकहि भजहिं जीव ते धन्य॥ { श्रीरामचरितमानस }