जिसकी सन्निधि में रहने से आचरण सुधर जावे, मनोवृत्तियाँ बदल जावे , श्रीभगवान् के सन्निकटता का अनुभव होने लगे, वही तो आचार्य हैं-स्वामी राजनारायणाचार्य

जिसकी सन्निधि में रहने से आचरण सुधर जावे, मनोवृत्तियाँ बदल जावे , श्रीभगवान् के सन्निकटता का अनुभव होने लगे, वही तो आचार्य हैं-स्वामी राजनारायणाचार्य
‘मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव’ { तैत्तरीय उपनिषद् १.११.२ }
वेद देव कहकर इन आचार्यों की महिमा का वर्णन करते हैं।
ज्ञातव्य है कि जीवमात्र के आचार्य तो भगवान् शेष हैं।
वे शेष ही समय-समय पर कभी अनन्त तो कभी लक्ष्मण , बलराम तथा रामानुजाचार्य के रूप में धरा-धाम पर प्रकट होकर सन्मार्ग बताते रहते हैं।
आदौ जगदाधारश्शेष: तदनुसुमित्रानन्दनवेष:।
तदुपरिधृत हलमुशलविशेष:
तदनन्तरमभवेद्गुरुरेष:॥
विष्णुधर्मसूत्र में माता-पिता तथा आचार्य को अतिगुरु शब्द से सम्बोधित किया गया है, अर्थात् ये तीनों ही असाधारण गुरु कहलाते हैं।
‘त्रय: पुरूषस्यातिगुरुवो भवन्ति। माता पिता आचार्यस्य ।तेषां नित्यमेव सुश्रूषुणा भवितव्यम्॥’
{ विष्णुधर्मसूत्र अ.३१ }
माता – पिता तथा आचार्य की नित्य सेवा करनी चाहिए।
जिस व्यक्ति ने अपने मां-बाप की सेवा नहीं की, वह किसी भी दशा में गुरु का सेवक नहीं हो सकता,जो गुरु का सेवक नहीं हुआ, वह कभी भी भगवान् का सेवक नहीं बन पाता॥
साधु संन्यासी, विरक्त, वैखानसों के लिए तो माता-पिता भी उसके गुरु ही होते हैं।चाहे आश्रम कोई भी हो सेवा का व्रत तो उसे लेना ही चाहिए।
यथा मातरमाश्रित्य सर्वे जीवन्ति जन्तव:।
तथा गृहाश्रमं प्राप्य सर्वे जीवन्ति चाश्रमा:॥
{ महाभारत अनुशासनपर्व १४१.५२.५३ }
जैसे माँ का आश्रय लेकर सभी प्राणी जीवित रहते हैं, उसी प्रकार गृहस्थ आश्रम की सेवा से अन्य आश्रम ब्रह्मचारी, विरक्त, वानप्रस्थ , साधु, संन्यासी आदि आश्रमोचित धर्मों का निर्बाध पालन करते हैं।
वर्ण एवं आश्रम सनातनधर्म का मूल तो है, पर लक्ष्य भगवद्भावभावितमति होकर प्राणिमात्र की सेवा करना है।
किसी भी वर्ण एवं आश्रम का लक्ष्य अहंकार करने के लिये नहीं है ।
सेवा करने के लिए तन, मन ,धन की आवश्यकता पड़ती है,जिसकी शुद्धता भी परम आवश्यक है ।
कालेन स्नानशौचाभ्यां संस्कारैस्तपसेज्यया।
शुध्यन्ति दानै: सन्तुष्ट्या
द्रव्याण्यात्माऽऽत्म विद्यया॥
{ श्रीमद्भागवत १०.५.४ }
समय से नूतनजल अशुद्ध भूमि ,स्नान से शरीर ,प्रक्षालन से वस्त्, संस्कारों से गर्भादि, तपस्या से इन्द्रि,यज्ञ से विप्र,दान से धन-धान्यादि और संतोष से मन आदि शुद्ध होते है, परन्तु आत्मा की शुद्धि तो आत्मज्ञान { अर्थपंचक ज्ञान } से ही होती है।
ज्ञातव्य है कि धन भी तीन प्रकार का हुआ करता है ।
‘शुक्ल:शबलोऽसितश्चार्थ:॥’
शुक्ल, शबल तथा असित।
(१) शुक्ल धन -अपनी वृत्ति से न्याय पूर्वक कमाये हुये धन को शुक्ल धन कहते हैं।
’स्ववृत्त्योपार्जितं सर्वं सर्वेषां शुक्लं’
(२) शबल धन-दूसरे की वृत्ति से कमाया हुआ धन,घुसखोरी का धन,जो बेचने योग्य नहीं है उसके बेचने से प्राप्त धन , उपकार के बदले लिया गया धन, शबल धन कहलाता है।
‘अनन्तरवृत्त्युपात्तं शबलम्’
(३) असित धन { काला धन } –
निन्दनीय वृत्ति से कमाया हुआ धन, छल-कपट,ठगी,बेईमानी,जूआ, चोरी,मिलावट,डकैती तथा व्याज आदि का धन ही काला धन कहलाता है।
‘अन्तरितवृत्त्युपात्तं च कृष्णम्॥’
शुक्ल धन सर्वत्र सदा ही कल्याणकारी होता है।
शबल धन के प्रयोग से बुद्धि में सात्विकता नहीं आती है, जबकि असितधन { काले धन } से तो सदैव अवनति ही होती है।
मैनें महापुरुषों के मुख से सुना है – धन धर्म करने के लिए मिला है,धन का उपार्जन धर्म करने के लिए किया जाता है।
परम सन्त डोंगरे जी ने बताया था कि ब्राह्मणों , कथावाचकों को किसी से भी दान में धन लेते समय विचार जरूर करना चाहिए कि दानदाता का धन किस प्रकार का है।
दान-दाता का पाप भी दान की वस्तु में सन्निहित होकर दान लेनेवाले के यहाँ चला जाता है, इसलिये ब्राह्मणों का धर्म { वृत्ति } दान लेना तो है ही साथ ही साथ दान देना भी है, ये दोनों ही अनुकरणीय बताया गया है।
यत्कर्म कुर्वतोऽस्य स्यात् परितोषोऽन्तरात्मन:।
तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्॥
{ मनुसंहिता ४.१६१ }
जिस कार्य को करने से अन्तरात्मा प्रसन्न हो, उसे ही करना चाहिये और जो इसके विपरीत हो, उसे छोड़ देना चाहिये।