*छठ पर्व शास्त्र एवं लोक परम्परा-आचार्य पंडित अभिषेक तिवारी*

*छठ पर्व शास्त्र एवं लोक परम्परा-आचार्य पंडित अभिषेक तिवारी*
छठ पर्व में भगवान् सूर्य की उपासना के साथ देवों के सेनापति स्कन्द की माता षष्ठिका देवी एवं स्कन्द की पत्नी देवसेना इन तीनों की पूजा का महत्त्वपूर्ण योग है।
इसी दिन कुमार कार्तिकेय देवताओं के सेनापति के रूप में प्रतिष्ठित हुए थे अतः भगवान् सूर्य के साथ-साथ इन सभी देव-देवियों के नाम इस पर्व के साथ जुड़ गये हैं और कालान्तर में इसका स्वरूप बृहत् हो गया है।
आचार्य पंडित अभिषेक तिवारी ने बताया की धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों में इसे स्कन्दषष्ठी, विवस्वत्-षष्ठी इन दोनों नामों से कहा गया है।
हेमाद्रि (१३वीं शती) ने अपने ग्रन्थ चतुर्वर्ग-चिन्तामणि में प्रत्येक मास की सप्तमी तिथि को भगवान् सूर्य की उपासना का वर्णन किया है तथा उनकी महिमा का वर्णन अलग-अलग पुराणों के वचनों के द्वारा प्रतिपादित किया है।
हेमाद्रि के अनुसार प्रत्येक मास में भगवान् सूर्य के विभिन्न रूपों की पूजा की जाती है- जैसे
माघ में वरुण,
फाल्गुन में सूर्य,
चैत्र में अंशुमाली,
वैशाख में धाता,
ज्येष्ठ में इन्द्र,
आषाढ एवं श्रावण मास में रवि,
भाद्र में भग,
आश्विन में पर्जन्य,
कार्तिक में त्वष्टा,
अग्रहण में मित्र
पौष में विष्णु के रूप में भगवान् सूर्य की पूजा की जाती है। (हेमाद्रि, व्रतखण्ड, अध्याय ११)।
इस प्रकार भगवान् सूर्य की उपासना के साथ सप्तमी तिथि का सम्बन्ध रहा है। इसी अध्याय में आगे लिखा गया है कि यह वार्षिक व्रत कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि को आरम्भ करना चाहिए। इस प्रकार, हेमाद्रि के अनुसार वर्ष भर के सप्तमी व्रतों में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्तिक शुक्ल सप्तमी को माना गया है। वर्तमान छठ का प्रारम्भिक रुप हमें यहाँ मिलता है।
लगभग इसी काल में उत्तर बिहार के धर्मशास्त्री चण्डेश्वर ने कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन भगवान् कार्तिकेय को अर्घ्य देने का विधान किया है तथा सप्तमी के दिन भगवान् भास्कर की पूजा का विधान किया है। यहाँ सप्तमी की पूजा का विधान करते हुए उन्होंने भविष्य पुराण को उद्धृत किया है कि पंचमी तिथि को एकभुक्त करें, यानी एकबार ही भोजन करें, षष्ठी को निराहार रहें तथा सप्तमी को भगवान् भास्कर की पूजा करें, जिससे सूर्यलोक की प्राप्ति, स्वर्ग की प्राप्ति, जीवन पर्यन्त पुत्र-पौत्र आदि के साथ धन-धान्य की प्राप्ति आदि होती है। छठ पर्व के आधुनिक रूप भी इसी प्रकार है। अतः हम कह सकते हैं कि १३०० ईं के आसपास भी इस व्रत की परम्परा थी।कार्तिक शुक्ल षष्ठी एवं सप्तमी तिथि को पारम्परिक रूप से विवस्वत् षष्ठी का पर्व मनाया जाता है। इसमें प्रधान रूप से पत्नी संज्ञा के साथ सूर्य की पूजा की जाती है। पौराणिक परम्परा में संज्ञा को सूर्य की पत्नी कहा गया है।
रुद्रधर (15वीं शती) के अनुसार इस पर्व की कथा स्कन्दपुराण से ली गयी है। इस कथा में दुःख एवं रोग नाश के लिए सूर्य का व्रत करने का उल्लेख किया गया है-
भास्करस्य_व्रतं_त्वेकं_यूयं_कुरुत_सत्तमाः
सर्वेषां_दुःखनाशो_हि_भवेत्तस्य_प्रसादतः।।24।।
आगे इस व्रत का विधान बतलाते हुए कहा गया है कि पंचमी तिथि को एकबार ही भोजन कर, संयमपूर्वक रहें, दुष्ट वचन, क्रोध, आदि का त्याग करें। अगले दिन षष्ठी तिथि को निराहार रहकर सन्ध्या में नदी के तट पर जाकर धूप, दीप, घी में पकाये हुए पकवान आदि से भगवान् भास्कर की आराधना कर उन्हें अर्घ्य दें। यहाँ अर्घ्य-मन्त्र इस प्रकार कहे गये हैं-
नमोऽस्तु सूर्याय सहस्रभानवे नमोऽस्तु वैश्वानर जातवेदसे।
त्वमेव चार्घ्यं प्रतिगृह्ण गृह्ण देवाधिदेवाय नमो नमस्ते।।
नमो_भगवते_तुभ्यं_नमस्ते_जातवेदसे।
दत्तमर्घ्यं_मया_भानो_त्वं_गृहाण_नमोऽस्तु_ते।।
एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते।
अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर।।
एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते।
गृहाणार्घ्यं मया दत्तं संज्ञयासहित प्रभो।।
यहाँ रात्रि में जागरण कर पुनः प्रातःकाल सूर्य की आराधना कर अर्घ्य देने का विधान किया गया है।
वर्तमान में खेमराज बेंकटेश्वर स्टीम् मुम्बई द्वारा प्रथम प्रकाशित तथा नाग प्रकाशन दिल्ली द्वारा पुनर्मुद्रित स्कन्दपुराण में यह कथा उपलब्ध नहीं है। इस विषय में ध्यातव्य है कि उत्तर भारत की परम्परा में प्रचलित कथाओं का मूल पुराणों में खोजने के लिए हमें पुराणों के उत्तर भारतीय संस्करण देखना चाहिए न कि मुम्बई संस्करण।इसकी दूसरी कथा भविष्योत्तर-पुराण से संकलित मानी गयी है, जिसके अनुसार जब पाण्डवगण जुआ में हारकर वनवासकाल व्यतीत कर रहे थे तब वे भाइयों के भरण-पोषण के लिए चिन्तित थे। इसी बीच अस्सी हजार मुनि उनके आश्रम में पधारे। उनके भोजन की चिन्ता में युधिष्ठिर अधिक घबड़ा उठे। तब द्रौपदी अपने पुरोहित धौम्य ऋषि से इसका समाधान पूछने लगी। धौम्य ऋषि ने उन्हें भगवान् सूर्य का व्रत रवि-षष्ठी करने का निर्देश दिया जिसे प्राचीन काल में भी नागकन्या के उपदेश से सुकन्या ने किया था।
सुकन्या के द्वारा सूर्य का व्रत करने की कथा बतलाते हुए धौम्य ऋषि ने कहा कि प्राचीन काल में शर्याति नामक एक राजा हुए उनकी पुत्री सुकन्या थी। एकबार राजा अपनी रानियों के साथ जंगल में शिकार खेलने के लिए गये थे। बालस्वभाववश सुकन्या वन में अकेले घूमने निकल पड़ी। उस वन में च्यवन मुनि घोर तपस्या कर रहे थे। उनके चारों ओर दीमक का टीला बन गया था किन्तु उसके एक छिद्र से मुनि की आँखें चमकती दिखाई पड़ रही थीं। सुकन्या बालसुलभ ने चपलता के कारण उनकी आँखों में काँटा चुभो दिया। मुनि की आँखों से रक्त की धारा बह चली। सुकन्या भी फूल चुनकर शिविर में लौट आयी। इस घटना के बाद राजा शर्याति और उनके सैनिक अवस्थ हो गये; उनके मल-मूत्र अवरुद्ध हो गये । तब राजा के पुरोहित ने रहस्य जानकर राजा को सारी बातें बतलायीं। पुरोहित ने उन्हें बतलाया कि आप अपनी कन्या उन्हें देकर उन्हें प्रसन्न करें। राजा ने वैसा ही किया। सुकन्या अन्धे मुनि च्यवन को ब्याही गयी। सुकन्या को वन में छोड़कर शर्याति नगर लौट आये।
एक दिन कार्तिक मास में सुकन्या जल लेने नदी के तट पर गयी। वहाँ उन्होंने नागकन्याओं को एक व्रत करते देखा। सुकन्या के पूछने पर नागकन्याओं ने कहा-
कार्तिकस्य_सिते_पक्षे_षष्ठी_सप्तमीयुता।
तत्र व्रतं प्रकुर्वीत सर्वकामार्थ सिद्धये।।
पञ्चम्यां नियमे कृत्वा व्रतं कृत्वा विधानतः।
एकाहारं हविष्यस्य भूमौ शय्यां प्रकल्पयेत्।।51।।
षष्ठ्यामुपोषणं कुर्याद्रात्रौ जागरणं चरेत्।
मण्डपं च चतुर्वर्णं पूजयेद्दिननायकम्।।52।।
नानाफलैः सनैवेद्यैः पक्वान्नाद्यैः प्रपूजयेत्।
उत्सवं गीतवाद्यादि कर्तव्यं सूर्यप्रीतये।
उत्सवं गीतवाद्यादि कर्तव्यं सूर्यप्रीतये।।53।।
तावदुपोषणं कुर्याद्यावत्सूर्यस्य दर्षनम्।
सप्तम्यामुदितं सूर्यं दद्यादर्घ्यं विधानतः।।54।।
सदुग्धैर्नारिकेलैस्तु_सपुष्पफलचन्दनैः।
इसके बाद अर्घ्य-मन्त्र इस प्रकार हैं-
नमोऽस्तु_सूर्याय_सहस्रभानवे_नमोऽस्तु_वैश्वानर #जातवेदसे।
त्वमेव_चार्घ्यं_प्रतिगृह्ण_गृह्ण_देवाधिदेवाय_नमो #नमस्ते।।
नमो_भगवते_तुभ्यं_नमस्ते_जातवेदसे।
दत्तमर्घ्यं_मया_भानो_त्वं_गृहाण_नमोऽस्तु_ते।।
एहि_सूर्य_सहस्त्रांशो_तेजोराशे_जगत्पते।
अनुकम्पय_मां_भक्त्या_गृहाणार्घ्यं_दिवाकर।।
यहाँ एक उत्कृष्ट प्रार्थना मन्त्र भी उल्लिखित है-
उँ_नमः_सवित्रे_जगदेकचक्षुषे जगत्प्रसूतिस्थितिनाशहेतवे।
त्रयीमयायत्रिगुणात्मधारिणेविरंचिनारायणशंकरात्मने।।
सुकन्या इन्हीं नागकन्याओं के उपदेश पर यह व्रत करने लगी, जिससे उसके पति च्यवन मुनि की आँखें नीरोग हो गयीं। इस पूर्वकथा को द्रौपदी से सुनाते हुए धौम्य ने द्रौपदी को भी यह व्रत करने का उपदेश किया, जिससे वह भी प्रसन्नतापूर्वक रहने लगी।’’
महाभारत में भगवान् सूर्य द्वारा द्रौपदी को अक्षय-पात्र देने का जो आख्यान है, उसी से इसे जोड़ा गया है।
नैवेद्य_बनाने_की_विधि_का_उल्लेख
इस व्रत में विशेष प्रकार के प्रसाद का भी उल्लेख प्राचीन काल से प्राप्त है। इसमें एक विशेष प्रकार का प्रसाद बनता है- ‘कसार’। यह दूसरे पर्व में नहीं बनाया जाता है।
लक्ष्मीधर (12वीं शती) के ‘कृत्यकल्पतरु’ में इसका उल्लेख सूर्य के लिए नैवेद्य के रूप में मिला। उन्होंने लिखा है कि गेहूँ के आटे को घी में भूनकर ईख के रस में पका कर ‘कासार’ बनाया जाता है। ईख के रस के बदले यदि मिसरी का प्रयोग किया जाए तो वह ‘सितासार’ कहलाता है। लोक-संस्कृति में यह आज भी सुरक्षित है।
हमारे अन्य पर्वों में जहाँ आधुनिकता के कारण पर्याप्त परिवर्तन आ चुका है, वहीं छठ पर्व में हम पाते हैं कि लगभग 12वीं शती से जो विधान शास्त्रों में पाये जाते हैं, वे आज भी सुरक्षित हैं। यह इस पर्व के प्रति असीम आस्था का परिणाम है।
छठी_मैया_की_अवधारणा
बिहार की लोक परम्परा में सूर्य षष्ठी में छठी मैया की पूजा से सम्बद्ध अनेक गीत तथा लोक कथाएँ प्रचलित हैं। इस परम्परा का सम्बन्ध भविष्य पुराण की एक कथा से है, जिसमें कार्तिक मास की षष्ठी तिथि को कार्तिकेय तथा उनकी माता की पूजा का विधान किया गया है। भविष्य-पुराण के उत्तर पर्व के 42वें अध्याय में कहा गया है कि कार्तिकेय ने इस दिन तारकानुसार का वध किया गया था। इसलिए यह तिथि कार्तिकेय की दयिता कही जाती है। इस अध्याय के प्रारम्भ में मार्गषीर्ष अर्थात् अग्रहण मास का नाम है-
येयं_मार्गशिरे_मासि_षष्ठी_भरतसत्तम।
पुष्या_पापहरा_धन्याषिवाषान्ता_गुहप्रिया।।
निहर्य_तारकं_षष्ठयां_गुहस्तारकाराजवत्।
रराज_तेन_दयिता_कार्तिकेशस्य_सा_तिथिः।।
यहाँ उल्लिखित मार्गषीर्ष को अमान्त मासारम्भ की गणना के अनुसार समझना चाहिए, क्योंकि इसी अध्याय में कार्तिक मास का भी उल्लेख है।
एवं_संवत्सरस्यान्ते_कार्तिके_मासि_शोभने।
कार्तिकेयं_समभ्यच्र्य_वासोभिर्भूषणैः_सह।।
इस अध्याय में इस षष्ठी तिथि को सूर्य की पूजा करने का भी विधान किया गया है।
साथ ही एक अन्य कथा के अनुसार शिव की शक्ति से उत्पन्न कार्तिकेय को छह कृतिकाओं ने दूध पिलाकर पाला था। अतः कार्तिकेय की छह मातायें मानी जाती हैं और उन्हें षाण्मातुर भी कहा जाता है। यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि कृतिका_नक्षत्र छह ताराओं का समूह भी है तथा स्कन्द-षष्ठी नाम से एक व्रत का उल्लेख भी है। बच्चे के जन्म के छठे दिन स्कन्दमाता षष्ठी नाम से एक व्रत का उल्लेख भी है। बच्चे के जन्म के छठे दिन स्कन्दमाता षष्ठी की पूजा भी प्राचीन काल से होती आयी है। अतः सूर्य-पूजा तथा स्कन्दमाता की पूजा की पृथक् परम्परा एक साथ जुड़कर सूर्यपूजा में स्कन्दषष्ठी समाहित हो गयी है; किन्तु लोक संस्कृति में छठी मैया की अवधारणा सुरक्षित है।