June 22, 2025

नाग नथैया लीला में कालिया का मर्दन कर निकले श्रीकृष्ण, काशी में गंगा बनी यमुना, दर्शन को उमड़े श्रद्धालु

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नाग नथैया लीला में कालिया का मर्दन कर निकले श्रीकृष्ण, काशी में गंगा बनी यमुना, दर्शन को उमड़े श्रद्धालु

 

काशी के तुलसीघाट पर सैकड़ों साल पुरानी परंपरा ‘नाग नथैया’ लीला शनिवार को फिर जीवंत हो उठी। इस दौरान गंगा किनारे आस्था और विश्वास के अटूट संगम का नजारा देखने को मिला। यहां की गंगा कुछ समय के लिए यमुना में परिवर्तित हो गई और गंगा तट पर हजारों वर्ष पुरानी वृंदावन की प्रमुख लीला दोहराई गई।

इस लीला में दिखाया गया कि घाट पर खेलते-खेलते भगवान श्री कृष्ण ने अचानक गंगा में छलांग लगा दी। काफी देर बाद कालिया नाग का मर्दन कर वे बाहर निकले। कान्हा के कदम के पेड़ से छलांग लगाते ही हर तरफ वृंदावन बिहारी लाल और हर-हर महादेव का जयघोष गूंज उठा। अद्भुत पलों के दर्शन के लिए घाटों-छतों से गंगा में नावों-बजड़ों तक जनसैलाब उमड़ा था।

कालिया नाग के फन पर बांसुरी बजाते कान्हा का दर्शन की अनूठी झांकी हर किसी को भावविह्वल कर गई। इन अलौकिक पलों को अपने कैमरों और मोबाइल में कैद करने की होड़ मची रही। अखाड़ा गोस्वामी तुलसीदास के महंत प्रोफेसर विशंभर नाथ मिश्र के सानिध्य में एवं देखरेख में आयोजित इस नाग नथैया के इस दस मिनट की लीला में भगवान श्री कृषण यमुना में स्थित कालिया नाग का दमन किया।

अखाड़ा गोस्वामी तुलसीघाट की ओर से ‘नाग नथैया’ के आयोजन की परंपरा साढ़े चार सौ साल से अधिक पुरानी है। इसकी शुरुआत गोस्वामी तुलसीदास ने की थी। काशी के लक्खा मेलों में शुमार नाग नथैया देखने के लिए दोपहर बाद से ही भीड़ जुटने लगी थी।

गोस्वामी तुलसीदास ने की थी शुरुआत

भगवान राम के अनन्य भक्त संत गोस्वामी तुलसीदास ने शिव की नगरी काशी राम नाम के साथ भगवान कृष्ण को भी लीला के जरिए जन जन तक पहुंचाया। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा भदैनी में लगभग 496 साल पहले कार्तिक माह में श्रीकृष्ण लीला की शुरुआत की थी। यह भक्ति और भाव का ही प्रभाव है कि काशी का तुलसी घाट गोकुल और उत्तरवाहिनी गंगा यमुना में बदल जाती हैं।

तुलसीदास द्वारा शुरू की गई इस 22 दिनों की लीला की परंपरा आज भी कायम है। इसमें भगवान कृष्ण के जन्मोत्सव से लेकर उनके द्वारा किए गए पूतना वध, कंस वध, गोवर्धन पर्वत सहित कई लीलाओं का मंचन किया जाता है। संकट मोचन मंदिर के महंत प्रो विश्वंभरनाथ मिश्रा का कहना है कि तुलसीदास ने इस लीला में सभी धर्मों के भेदभाव को मिटा दिया है। सभी कलाकर अस्सी भदैनी के ही होते हैं।

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