June 23, 2025

जहाँ पर विभिन्न प्रकार के ‘ वाद ‘ होगें, वहाँ पर ‘ विवाद ‘ भी होगा,पर जहाँ पर एक ही ‘ वाद ‘ है,एक ही ‘मत ‘ है,भला वहाँ पर कैसा विवाद ? जगद्गुरु रामानुजाचार्य.

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जहाँ पर विभिन्न प्रकार के ‘ वाद ‘ होगें, वहाँ पर ‘ विवाद ‘ भी होगा,पर जहाँ पर एक ही ‘ वाद ‘ है,एक ही ‘मत ‘ है,भला वहाँ पर कैसा विवाद ?
जगद्गुरु रामानुजाचार्य.

स्वामी राजनारायणाचार्य जी ने कहा की

 

विशिष्टाद्वैत-सिद्धान्त

जहाँ पर विभिन्न प्रकार के ‘ वाद ‘ होगें, वहाँ पर ‘ विवाद ‘ भी होगा,पर जहाँ पर एक ही ‘ वाद ‘ है,एक ही ‘मत ‘ है,भला वहाँ पर कैसा विवाद ?
अतिशय प्राचीन ‘ श्रीसम्प्रदाय ‘ की दो मूल शाखाएँ हैं ।
१. आचार्य श्रीवैष्णव { आचारी }
२. वीतराग श्रीवैष्णव { वैरागी }
दोनों ही विशिष्टाद्वैत सिद्धांत को माननेवाले ।
जब एक ही ‘ वाद ‘ है तो ‘ विवाद ‘ नहीं होना चाहिए ।
इस समय विधर्मी शक्ति से नवीन पीढ़ी को कैसे बचाया जावे,इन बिन्दुओं पर ध्यान देना अपेक्षित है ।
महर्षि बोधायन की वृत्ति अनुसार भगवान् श्रीरामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत में प्रवेशाधिकार के लिए यथामति निर्वचन कर रहा हूँ ।
विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त की मान्यता है कि वेदान्त की सगुण श्रुतियों का तात्पर्य परमात्मा को अखिल कल्याणगुणाकार बतलाना है।
निर्गुण श्रुतियाँ ये बतलाती हैं कि परमात्मा में कोई भी प्राकृतिक हेयगुण नहीं है,अतएव परमात्मा { श्रीभगवान् }उभयलिंग विशिष्ट हैं।
आद्यजगद्गुरु श्रीरामानुजाचार्यजी ने श्रीभाष्य के मंगलाचरण में स्पष्ट कर दिया है कि ब्रह्म या परमात्मा श्रीमन्नारायण ही हैं,जिन्हें समयानुसार राम,कृष्ण आदि नामों से जाना जाता है।
वे परमात्मा नारायण या राम या कृष्ण ही अद्वैत तत्त्व है।
प्रकृति और जीव उस परमात्मा का शरीर है।
प्रकृति एवं जीव से विशिष्ट होने के कारण ही परमात्मा को विशिष्ट अद्वैत कहते हैं।
जगत् परमात्मा का शरीर है –
‘ जगत् सर्वं शरीरं ते’
‘ तानि सर्वाणि तद्वपु:’
‘ यस्यात्मा शरीरम् ‘।
श्रीरामानुजाचार्यजी श्रीशंकराचार्यजी की तरह जगत् को मिथ्या नहीं मानते हैं, वे तो परब्रह्म को सम्पूर्ण जगत् के अभिन्न निमित्तोपदानकारण मानते हुये जगत् एवं ब्रह्म में शरीर-शरीरी भाव मानते हैं।
अद्वैतदर्शन भी अत्यन्त प्राचीन है,पर विशिष्टाद्वैत दर्शन तो अनादि है-
‘ भगवद्बोधायनकृतां विस्तीर्णां ब्रह्मसूत्रवृत्तिं पूर्वाचार्या: संचिक्षिपु: तन्मतानुसारेण सूत्राक्षराणि व्याख्यास्यन्ते।’
भगवान् रामानुजाचार्य ने ब्रह्मसूत्र के एक -एक वर्ण,अक्षर की व्याख्या भगवान् बोधायन तथा श्रीद्रमिणाचार्य आदि पूर्वाचार्यों के सिद्धान्तानुसार ही श्रीभाष्य में की है ।
शारीरकमीमांसा का प्रतिपाद्य विषय उपाय तथा उपेय है।
उपाय भी दो प्रकार के हैं – सिद्धोपाय तथा साध्योपाय ।
उपेय [ प्राप्य ] तो परब्रह्म श्रीनारायण,श्रीराम,श्रीकृष्ण ही हैं।
देखा जाय तो इस दर्शन का संरक्षण दिव्य सूरियों एवं श्रीनाथमुनि, यामुनमुनि प्रभृति पूर्वाचार्यों ने अपने ग्रन्थों के माध्यम से किया है।
ज्ञातव्य है कि भगवान् श्रीरामानुजाचार्यजी ने प्रस्थानत्रयी पर विशिष्टाद्वैत दर्शन परक श्रीभाष्य की रचना की है जो अद्वितीय है जिसका प्रभाव विश्व के दार्शनिकों के मानसपटल पर अमिट छाप छोड़ा है, क्योंकि
वास्तव में भगवान् श्रीरामानुजाचार्य ने भेदश्रुति,अभेदश्रुति,उभयस्वरुप-घटकश्रुति तथा निषेधश्रुतियों की भी सम्यक् व्याख्या अपने श्रीभाष्य में की है,जो वेदों के अपौरुषेयता, प्रमाणिकता को जनसामान्य में प्रचारित करने का श्लाघ्यनीय कार्य करता है।
विशिष्टाद्वैत शब्द की व्युत्पत्ति पूर्व के परम पूज्य आचार्यों ने की है उसे ही प्रसंगवश लिख रहा हूँ।
‘ द्वयोर्भावो द्विता, द्वितैव द्वैतम् भेद इत्यर्थ:।
न द्वैतम् अद्वैतम् ; अभेद इत्यर्थ:। विशिष्टस्याद्वैतम् विशिष्टाद्वैतम्। वैशिष्ट्यंच चिदचिदो:।
जय श्रीमन्नारायण

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