June 23, 2025

भगवान् की शरणागति में अमोघ शक्ति होती है- स्वामी राजनारायणाचार्य

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भगवान् की शरणागति में अमोघ शक्ति होती है-
स्वामी राजनारायणाचार्य

शरणागति श्रीभगवान् के दिव्य पादपद्मों में केवल एक ही बार की जाती है।
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम॥
{ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण ६।१८।३३ }
एकबार को संस्कृत में ‘ सकृदेव ‘ कहा गया है ।

श्रीभगवान् शरण में आये हुए का कभी भी परित्याग नहीं करते क्योंकि यह उनका व्रत है-
‘एतद्व्रतं मम व्रतवदिदं कस्यांचिदपि दशायां
परित्यागायोग्यमित्यर्थ:’
[श्रीगोविन्दराज ]

भगवान् श्रीरामानुजाचार्य ने श्रीभाष्य के मंगलाचरण में ‘ व्रातरक्षैकदीक्षे’ का अनुसन्धान किया है।
शरणागति में श्रीभगवान् के स्थैर्य, धैर्य, माधुर्य, वात्सल्य,शेषीत्व पर महाविश्वास होना परम आवश्यक होता है ।
‘ न धर्मनिष्ठोस्मि न चात्मवेदी न भक्तिमांस्त्वच्चरणारविन्दे।अकिंचनोनन्यगति: शरण्य त्वत्पादमूलं शरणं प्रपद्ये॥
{आलवन्दारस्तोत्र}
हृद्गत भाव से प्रार्थना करनी चाहिये कि
हे नारायण ! हे श्रीराम ! हे गोविन्द !
मुझमें न तो आपके दिव्यपादपद्मों में भक्ति है,न धर्मनिष्ठा ही है; यदि कुछ है भी तो मात्र इतना ही कह सकता हूँ कि मैं अकिंचन हूँ।
मेरे लिए यदि कोई अवलम्ब है तो हे रघुनाथजी केवल श्रीमान् का श्रीचरणारविन्द ही जिसे मैंने पकड़ लिया है-
“श्रीमन्नारायण चरणौ शरणं प्रपद्ये, श्रीमतेनारायणाय नम: ।

ध्यातव्य है कि महाविष्णु एवं विष्णु में महालक्ष्मी एवं लक्ष्मी में शास्त्रीय सिद्धांत से किसी भी प्रकार अन्तर नहीं होता है ।
श्रीलक्ष्मीजी एक नाम ‘मा’ है, ‘लोकमाता’ है -” इन्दिरा लोकमाता मा क्षीरोदतनया रमा” { अमरकोश } इससे सिद्ध होता है कि कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों को जन्म देनेवाली माता केवल श्रीलक्ष्मीजी हैं,ये ही आदिशक्ति हैं,इन्हीं भगवती के अंशांभूता अन्यान्य देवमहिषी देवियाँ हैं।

श्रीलक्ष्मी जी का भगवान् नारायण से नित्य सम्बन्ध है,अत: लक्ष्मी जी
‘ नित्यानपायिनी मूर्ति’ कही जातीं हैं।
श्रीभगवान् की प्रत्यक्ष साकार कृपा ही साकारभूत् श्रीलक्ष्मीजी कहलाती हैं।
लक्ष्म्या सह हृषीकेशो देव्या कारुण्यरूपया।
रक्षक:सर्वसिद्धान्ते वेदान्तेषु च गीयते॥
श्रीलक्ष्मीजी जी ही
‘ श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ’ वेदानुसार दो प्रकार से कार्यों का सम्पादन करतीं हैं।
अर्थरूपा एवं ज्ञानरूपा।
ज्ञानरूपा श्री को ‘श्री’ कहते हैं जबकि अर्थरूपा श्री ‘को लक्ष्मी कहते हैं।
वे जगज्जननी जगज्जन्मादिकारयित्री,अघटित-घटना-पटीयसी श्रीवैकुण्ठवल्ली श्री श्री महालक्ष्मीजी जो समय समय पर कभी सीता,रुक्मिणी, राधा,रेवती,सत्यभामा आदि विविध स्वरूपों को धारण कर पूर्ण सनातनब्रह्म श्रीमन्नारायण भगवान् की सर्वविध सेवा करती हुईं सम्पूर्ण जीवों को श्रीभगवान् के दिव्यपादारविन्दों में लगानेवाली हैं तथा प्रकृति एवं पुरुष सभी के आश्रय होने के बाद भी वे महालक्ष्मी श्रीभगवान् नारायण के आश्रित हुईं जीवों के सर्वविध कल्याण हेतु पुरुषकार करती रहती हैं।
श्रीविभीषण जी कहते हैं-
परित्यक्ता मया लंका मित्राणि च धनानि च।
व्रजगोपिका कहतीं हैं-
मैवं विभोर्हति भवान् गदितुं नृशंसं सन्त्यज्य सर्वविषयांस्तव पादमूलम्।{ श्रीमद्भागवत १०।२९।३१ }
भगवद्रामानुज ने कहा-‘ पितरं मातरं दारान्पुत्रान्वन्धून्सखीन्गुरुन्।
रत्नानि धनधान्यानि क्षेत्राणि च गृहाणि च।
सर्वधर्मांश्च संत्यज्य सर्वकामांश्च साक्षरान्।
लोकविक्रान्तचरणौ शरणं ते व्रजं विभो॥
निश्चित बात है कि हृदय से सच्ची शरणागति की जाय तो अवश्य ही श्रीभगवान् की सन्निधि प्राप्त हो जाती है ।
ध्यान रहे कि श्रीमन्नारायण,विष्णु,महाविष्णु,राम,कृष्ण,नृसिंह,वामन आदि भगवद् रूपों में किसी भी प्रकार का भेद नहीं है ।

स्वरुपनिष्ठा,धामनिष्ठा आदि तो होनी ही चाहिए क्योंकि उपासक अपनी परम्परा के अनुरुप ही उपासना करता है परन्तु तत्त्व तो एक ही है ।

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