किसी का भी कोई पद स्थायी नहीं होता-स्वामी राजनारायणाचार्य
जब श्रीब्रह्मा जी का परमेष्ठी पद,श्रीपुरन्दर का इन्द्र पद ही स्थायी नहीं है तो भला प्रारब्धवश किसी व्यक्ति को प्राप्त कोई भी पद स्थायी कैसे हो सकता है।
ध्यातव्य है कि प्राप्त पद का अंहकार विवेक को नष्ट कर देता है।
धतूरे का बीज खाकर मनुष्य जितना पागल होता है,उससे सौगुना अधिक पागल किसी अस्थायी विशिष्ट पद को प्राप्त करके हो जाता है।
उसकी सोच नकारात्मक हो जाती है,इसलिए वह तिरस्कार करने लगता है ।
मनुष्यों के हृदय में आसक्ति की ग्रन्थी पड़ने से वह बार-बार तिरस्कृत होते तो रहता है,पर कभी ये नहीं सोच पाता कि मेरे हृदय में बैठे पूर्णब्रह्म नारायण का भी तो अपमान हो रहा है ।
श्रीमद्भागवत जी का निम्नलिखित मंत्र ध्यान देने योग्य है-
विश्वस्य यः स्थितिलयोद्भवहेतुराद्यो योगेश्वरैरपि दुरत्यययोगमायाम्।
क्षेमं विधास्यति स नो भगवांस्त्र्यधीशस्तत्रास्मदीयविमृशेन कियानिहार्थः॥
{ श्रीमद्भागवत ३।१६।३७ }
बड़े -बड़े अमलात्मा योगेश्वर भी जिनकी योगमाया को नहीं समझ पाये,वे सृष्टि के मूल कारण, त्रिगुणात्मिका मायारूपिणी नृत्यांगना को नचानेवाले भगवान् श्रीमन्नारायण ही हमारा कल्याण करेंगे, इन्हीं अनुकीर्तनीय सूक्तियों को हृदयंगम करके सदैव ही निश्चिंत रहना चाहिए ।
जब तक श्रीमन्नारायण के वरदहस्त की छत्र-छाया हमारे सिरपर है,हमें लौकिक पद-प्रतिष्ठित लोगों की ओर न देखते हुए उनके तिरस्कार से मानापमान की चिंता कदापि नहीं करनी चाहिए ।
परम पूज्य पद-वाक्य-प्रमाण पारावारीण स्वामी श्रीअखण्डानन्द सरस्वती जी की ये पंक्तियाँ-
“ चिन्ता करे बलाय हमारी,जगती के जंजाल की।
बलिहारी बलिहारी बोलो,गिरधारी नन्दलाल की॥