June 23, 2025

केवल किसी पीठ के अधीश्वर होने मात्र से ही कोई संत-महात्मा नहीं हो जाता है-स्वामी राजनारायणाचार्य

IMG-20220930-WA0030

केवल किसी पीठ के अधीश्वर होने मात्र से ही कोई संत-महात्मा नहीं हो जाता है-स्वामी राजनारायणाचार्य

केवल किसी पीठ के अधीश्वर होने मात्र से ही कोई संत-महात्मा नहीं हो जाता है,क्योंकि उनमें अपने पीठ को लेकर अहंकार का समावेश हो जाता है । वास्तव में संत-महात्मा वे लोग होते हैं,जिन्होंने श्रीभगवान् की शरणागति की हो,ऐसे महात्माओं के लिए शास्त्रों में ‘प्रशमायनाः’ कहा गया है,अर्थात् वे महात्माजन शान्ति के आश्रय होतें हैं जिनके आश्रित होते ही मनुष्य तत्काल पवित्र हो जाता है ।
संत-महात्मा बहुत ही उदार होते हैं ।
‘ उद् ऊर्ध्वं शक्तेः आसमन्तात् रातीति उदारः।’
जो अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य से अधिक देवे,उसे ही उदार कहा जाता है । संत-महात्मा इसलिए उदार हैं कि वे अपनी शक्ति सामर्थ्य से भी अधिक श्रीभगवान् के दिव्य चरित्र का दान करते रहते हैं,यही कारण है कि
सन्त-महात्माओं की निर्हेतुकी कृपा से सुदुर्लभ श्रीभगवान् की सन्निधि प्राप्त हो जाती है।

सन्त-महात्माओं के बाह्य आचरण को देखकर उनकी गहराई कितनी है,इसका पता नहीं चल पाता है,साधारण बुद्धि से उन्हें समझा नहीं जा सकता है।
ज्ञातव्य है कि लोकोत्तर पुरुषों के कार्य भी लोकोत्तर ही हुआ करते हैं।
श्रुति-वाक्यों में गुरुपदवाच्य संत अपने शिष्यों से कहते हैं-
यान्यनवद्यानि कर्माणि।
तानि सेवितव्यानि।
नो इतराणि।
यान्यस्माक् गुं सुचरितानि।
तानि त्वयोपास्यानि।
नो इतराणि।
शास्त्रों में जिसका विधान किया गया है, उन्हीं निर्दोष कर्मों का ही आचरण करो,जो शास्त्रों से हटकर कार्य है, उसका आचरण कभी भी नहीं करना।
हमलोगों में भी जो सुन्दर शास्त्रविहित आचरण है, तुम्हें उन्हीं का अनुकरण करना चाहिये,यदि कहीं स्वभाववश तुम्हें निन्दित कर्म दृष्टि पथ में आ रहा है तो उसका अनुकरण मत करना।

सन्त-महात्मा भगवान् के किस गुप्त संकेत को पाकर कब किस प्रकार का आचरण करते हैं,उसे साधारण मनुष्य समझ नहीं सकते।
ध्यातव्य है कि सन्त-महात्मा,आचार्य एवं भक्तों का आचरण निर्मल तथा अनुसंधेय होता है।

पूर्ण विश्वास के साथ ये मान लेना चाहिए कि सन्त-महात्मा भगवान् के ही स्वरूप हैं,इसलिए उनकी सेवा-पूजा, आदर-भाव करना श्रीभगवान् की भक्ति कहलाती है।
“ संतों के संग लाग रे,तेरी अच्छी बनेगी।”

About Post Author