एक दिन की पूजा करने से ही या किसी कामना से अनुष्ठान करने मात्र से कोई भक्त नहीं बन जाता- स्वामी राजनारायणाचार्य

एक दिन की पूजा करने से ही या किसी कामना से अनुष्ठान करने मात्र से कोई भक्त नहीं बन जाता-
स्वामी राजनारायणाचार्य
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्॥
{ श्रीमद्भगवद्गीता १३.१९ }
इस श्लोक के भाष्य करते हुये आद्य जगद्गुरु शंकराचार्य जी ने लिखा है कि प्रकृति एवं पुरुष अनादि हैं, सत्य हैं ।
मुझे तो लगता है कि श्रीशंकराचार्य जी भी परोक्षरुप से ब्रह्म को चिदचिद्विशिष्ट ही मानते हैं,क्योंकि अपने भाष्य में वे लिखते हैं – “ईशितव्याभावे ईशितत्वाभावप्रसंगात् ”
यदि जीव एवं प्रकृति की सत्ता नहीं मानी जायेगी तो ईश्वर किसका नियन्त्रण एवं संचालन करेगें।
जब भगवान् होगें तब ही भक्ति भी होगी तथा भक्त भी होगें ।
जब भक्त ही नहीं होगें तो फिर भगवान् किसका ?
सिद्धांत है कि यदि भगवान् को प्राप्त करना चाहे तो उसे चाहिए कि वह पहले भक्त की सन्निधि में जावे।
जिसके हृदय में भक्ति है वही तो भक्त है -“भक्तिरस्यास्तीति भक्तः।
संस्कृत में ‘भक्तं’ या भक्त चावल से बनें ‘भात’ को भी कहते है –
“भज्यते मूसलेन इति भक्तः”
जो मूसल से कूटा जावे वह चावल भी भक्त कहलाता है ।
एक दिन की पूजा करने से ही या किसी कामना से अनुष्ठान करने मात्र से कोई भक्त नहीं बन जाता, क्योंकि
श्रीलक्ष्मीनारायण भगवान् के भक्त भी चावल की तरह ही होते हैं ; जैसे ‘धान’ का छिलका,भूसी आदि त्याज्यांश हटने के बाद ही वह चावल कहलाता है फिर उसे गर्म जल में तपाकर भात बनाया जाता है ,
इसके बाद वह मनुष्य का भोग्य { भोजन करने योग्य भात } बन जाता है,ठीक उसी प्रकार से जिसका काम, क्रोधरुप आवरण हट जाता है,जो सम्यक् प्रकार से तप जाता है,वही भक्त तो भगवान् का भोग्य बन पाता है ।
जैसे चावल मनुष्य का भोग्य बन जाता है,ठीक उसी तरह भक्त भी भगवान् का भोग्य बन जाता है ।
जो भगवान् की जीभ को स्वाद देने के लिए दाँतों के नीचे कुचल जाता है वही तो भक्त है।
ज्ञातव्य है कि भात को स्वाद नहीं आता,स्वाद तो आता है भात खानेवाले को इसलिये हम सभी अपने जीवन को ऐसा बनायें जिसे पाकर श्रीभगवान् को स्वाद आवे,श्रीभगवान् हम सभी को अपनायें।
प्रीति राम सों नीति पथ,चलिय राग रिस जीति ।
तुलसी संतन के मते,इहै भगति की रीति॥
भजनं भक्ति:- भजनीय श्रीभगवान् का भजन करना,सभी प्राणियों में श्रीभगवान् को देखते हुये सभी की सेवा के लिये तत्पर रहना,सामर्थ्यानुसार सेवा करना भी श्रीभगवान् की भक्ति कहलाती है तथा सेवक भक्त कहलाता है।