June 24, 2025

विचारपूर्वक जीवन-यापन करने वाले को मनुष्य कहते हैं-स्वामी राजनारायणाचार्य

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विचारपूर्वक जीवन-यापन करने वाले को मनुष्य कहते हैं-स्वामी राजनारायणाचार्य

निरुक्त में महर्षि यास्क ने लिखा है – विचारपूर्वक जीवन-यापन करने वाले को मनुष्य कहते हैं।
” मत्वा कर्माणि सीव्यन्ति इति मनुष्य:।”
विचार करने पर लगता है कि हमें मनोयोग से जीवित माता-पिता की सेवा करनी चाहिये तथा जब उनका शरीर छुट जावे तो उनका ‘श्राद्ध’ अवश्य करना चाहिये।
श्रीवैष्णवजन श्राद्ध आदि वैदिक कर्मों को श्रीभगवान् की आज्ञा मानकर उन्हीं की प्रसन्नता के लिये भगवत्कैंकर्यरूप श्राद्ध – तर्पण, ब्राह्मण भोजन आदि कैंकर्य किया करते हैं।
कुर्यादापरपक्षीयं मासि प्रौष्ठपदे द्विज:।
श्राद्धं पित्रोर्यथावित्तं तद्बन्धूनां च वित्तवान्॥
{ श्रीमद्भागवत ७.१४.१९ }
अपने पिताजी, दादाजी, गुरुजी, नानाजी आदि का महालय श्राद्ध ( पितृपक्ष ) अवश्य करना चाहिये।
न ह्यग्निमुखतोऽयं वै भगवान्सर्वयज्ञभुक्।
इज्यते हविषा राजन्यथा विप्रमुखे हुतै:॥
{ श्रीमद्भागवत ७.१४.१७ }
सभी यज्ञों के भोक्ता तो परब्रह्म श्रीनारायण हैं।
ज्ञातव्य है कि ब्राह्मण के मुख में अर्पित किये हुए हिविष्यान्न अर्थात् ब्राह्मण भोजन से भगवान् श्रीमन्नारायण की जैसी तृप्ति होती है,वैसी अग्नि के मुख में हवन करने से भी नहीं होती।
द्वौ दैवे पितृकार्ये त्रीनेकैकमुभयत्र वा। भोजयेत् सुसमृद्धोऽपि श्राद्धे कुर्यान्न विस्तरम्॥
{श्रीमद्भागवत ७.१५.३ }
बहुत धनी व्यक्ति को भी पितृपक्ष में पिता,पितामह की पुण्यतिथि पर श्राद्ध का बहुत विस्तार न करते हुये केवल एक या तीन ब्राह्मणों को ही हविष्यान्न भोजन कराने से श्राद्ध की पूर्णता हो जाती है।
यदि बहुत ही ग़रीबी है,घर पर स्वयं खाने के लिये भी अन्न नहीं है तो कैसे करें श्राद्ध ?
श्रीविष्णुपुराण में इसकी बहुत ही सुन्दर व्यवस्था दी हुई है-‘धन के अभाव में घर से बाहर जाकर दोनों हाथ उठाकर पितरों से प्रार्थना कर देने से भी श्राद्ध की पूर्ति हो जाती है।
‘ न मेऽस्ति वित्तं न धनं च नान्यच्छ्राद्धपयोग्यं स्वपितृन्नतोऽस्मि। तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मयैतौ कृतौ भुजौ वर्त्मनि मारुतस्य॥
[ श्रीविष्णुपुराण ३.१४.३० ]
गाय को घास वगैरह खिलाने से भी पिता के प्रति किया गया श्राद्ध सफल हो जाता है।
य: करोति कृतं तेन श्राद्धं भवति पार्थिव।।{ ३१ }

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