यदि दुष्ट अपनी दुर्जनता नहीं छोड़ रहा है तो सज्जन को भी चाहिए कि वह अपनी सज्जनता न छोड़े- स्वामी राजनारायणाचार्य

यदि दुष्ट अपनी दुर्जनता नहीं छोड़ रहा है तो सज्जन को भी चाहिए कि वह अपनी सज्जनता न छोड़े-
स्वामी राजनारायणाचार्य
यदि दुष्ट अपनी दुर्जनता नहीं छोड़ रहा है तो सज्जन को भी चाहिए कि वह अपनी सज्जनता न छोड़े।
दुष्ट लोगों का स्वभाव ऐसा होता है कि वह किसी भी हालत में अपना दोष नहीं स्वीकार करता,बल्कि किसी न किसी दूसरे के सिर पर अपने दोषों का दायित्व डाल देता है।
यदि कोई अपना दोष स्वीकार कर लेवे,तो उसके निवारण का उपाय भी हो सकता है।
श्रीमद्भागवत जी में कथा आयी है कि कंस अश्रुमुख था,उसके आँखों से आँसू न गिरकर सदैव आँसू उसके मुँह से ही गिरते थे,क्योंकि वे आँसू स्वाभाविक नहीं होते थे।
क्षमध्वं मम दौरात्म्यं साधवो दीनवत्सला:।
इत्युक्त्वाश्रुमुख: पादौ श्याल: स्वस्रोरथाग्रहीत्॥
{ श्रीमद्भागवत १०।४।२३ }
कंस का स्वभाव तो कसाई की तरह था।
‘कसि हिंसायाम् ‘ से कंस शब्द बना है।
कंस अर्थात् जिसका स्वभाव कसाई की तरह हो।
स्वयं जो मरने से डरता है और दूसरों को उपदेश करता है कि मरने से डरने की आवश्यकता ही नहीं तो उसका ये ज्ञान,आसुर ज्ञान कहलाता है।
आसुर ज्ञान से अहंकार होता है, अहंकार से अपने-पराये का भेद हो जाता है और फिर उससे शोक-हर्ष-लोभ-मोह आदि उत्पन्न हो जाते हैं।
संसार का तो यह हाल है कि यहाँ की एक वस्तु दूसरी वस्तु को काटती जा रही है।
ज्ञातव्य है कि वैदिक कर्मनिष्ठ ब्राह्मण, वेद,गाय,तपस्या,सत्य,शम,दम,और दक्षिणा सहित यज्ञ, श्रद्धा,दया,सहनशीलता ये वास्तव में साक्षात् भगवान् नारायण का दिव्य शरीर है या यों कहें कि सनातनधर्म का ये मूलस्वरूप है ।
विप्रा गावश्च वेदाश्च तप: सत्यं दम: शम:।
श्रद्धा दया तितिक्षा च क्रतवश्च हरेस्तनू:॥
{ श्रीमद्भागवत १०।४।४१ }
युग के अनुसार जो भी साधु,सन्त-महात्मा दिखाई पड़ रहे हैं उनके प्रति श्रद्धायुक्त आदर का भाव रखना ही श्रेयस्कर है, उनसे द्वेष करना तो विपत्ति निमंत्रित करनेवाला होता है।
जिनकी मृत्यु पास में आजाती है,वे ही सन्तों से विद्वेष करते हैं ।
ते वै रज:प्रकृतयस्तमसा मूढचेतस:।
सतां विद्वेषमाचेरुरारादागतमृत्यव:॥
{ श्रीमद्भागवत १०।४।४५ }
महापुरुषों के साथ दुर्व्यवहार करने से निश्चय ही आयु, धन,यश, धर्म,लोक,आशीष एवं सम्पूर्ण कल्याण करनेवाली चीज़ें नष्ट हो जाती हैं ।
‘ हन्ति श्रेयांसि सर्वाणि’
{ श्रीमद्भागवत १०।४।४६ }
इसलिये सावधानी पूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए सत्संग तो करना ही चाहिए, साथ ही साथ सन्त-महात्मा वैष्णवों की सेवा भी करनी चाहिए।
सेवा साधु,संत,महात्मा, वैष्णव जनों की श्रद्धापूर्वक सेवा करने से भगवान् श्रीबालकृष्ण प्रसन्न हो जाते हैं ।