शिष्य की श्रद्धा तथा गुरु का अनुग्रह ही दीक्षा कहलाता है- स्वामी राजनारायणाचार्य
अपने को ही ज्येष्ठ श्रेष्ठ माननेवाले लोगों को ही ‘ देहाभिमानी’ कहा जाता है,क्योंकि वे देहाभिमानी लोग देह को ही आत्मा मानकर विद्वान्,कुलवान् पदान्वित एवं सम्भ्रांत होने की भ्रांति में पड़कर अपने सुरदुर्लभ मानव जीवन को नष्ट कर लेते हैं।
ज्ञातव्य है कि जिस देह को लेकर अभिमान हुआ है,वह देह तो हड्डी,मांस,चमड़ा, विष्ठा एवं मूत्र की पिटारी है, क्योंकि ’दिह्-उपचये’ धातु से ‘देह’ शब्द बना है ।
महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य जी ने कहा है कि जिसे जला दिया जावे,वही तो देह है- ‘दह्यते इति देहः’।
श्रीमद्भागवत जी के भागवतधर्म निरुपणक्रम में देहाभिमान को मिटाने के लिए सारे कर्मों को भगवान् श्रीनारायण के दिव्य चरणारविन्दों में समर्पित कर देने के लिए आज्ञा दी गई है,जिसे भागवतधर्म का मूल भी कहा जा सकता है।
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुद्ध्यात्मना वाऽनुसृतस्वभावात्।
करोति यद् यत् सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयेत्तत्॥
{ श्रीमद्भागवत ११।२।३६ }
ध्यातव्य है कि श्रीअंगिरा ऋषि भी इन्हीं बातों की पुष्टि करते हैं-
‘ भगवदर्पितं कर्म धर्मः इति अंगिरा’।
तीर्थ,व्रत,स्वाध्याय,प्रवचन,दान तथा श्रीभगवान् के प्रति समर्पण कैसे किया जावे,इसे भी गुरु से ही सीखना पड़ता है।
वेद,वेदान्त,श्रीरामायण,महाभारत,
श्रीमद्भागवत आदि ग्रंथों को भी गुरु की सन्निधि में बैठकर पढ़ना पड़ता है,तब ही तत्वोपलब्धि हो पाती है ।
स्वतः ग्रंथ की हिन्दी या अंग्रेज़ी अनुवाद पढ़ लेने मात्र से तत्वबोध नहीं हो पाता।
आद्य जगद्गुरु श्रीरामानुजाचार्य जी ने तो श्रीवाल्मीकीय रामायण को गुरुजी की सन्निधि में बैठकर १८ बार पढ़ा था।
श्रीमद्भागवत कथावाचक विद्वान,भक्त के साथ ही कथा कहने का अधिकारी हों तो श्रद्धा पूर्वक उनसे कथा सुननी चाहिए क्योंकि कथा सुनना ही मंगल है,कल्याण है- ‘ श्रवण मंगलम्’।
यदि स्वतः ही ग्रंथ मँगवाकर उसे पढ़ने मात्र से ज्ञान हो जावे तो विद्यालयों में जाने की क्या आवश्यकता है ?
ज्ञातव्य है कि स्वतः ग्रंथ पढ़ने से तो ज्ञानी होने का मिथ्याभिमान ही होगा।
मिथ्याज्ञान ही मिथ्याचार का जनक होता है।
गहराई से देखने पर ग्रंथों में अनेकों विधायें मिलती हैं,जैसे नारिकेलपाक,बदरीपाकविधा आदि जिसका गूढ़ार्थ गुरु की सन्निधि में बैठकर ही सीखा जा सकता है।
परम पूज्य दयार्द्रहृदय गुरुजन ग्रंथों को पढ़ाने के क्रम में किसी प्रसंग का मुख्यार्थ से तो किसी प्रसंग का वाच्यार्थ से तो कहीं लक्ष्यार्थ से अर्थों का निर्णय करते हुए पढ़ाते हैं।
सनातनधर्म ग्रंथो को स्वतः पढ़कर समझ पाना शक्य नहीं हो सकता।
धर्म एवं अधर्म का स्वतः निर्णय करना भी बहुत ही कठिन होता है, इसलिए गुरु उपदिष्ट ‘आनुश्रविक ‘ ग्रंथोपदेश को ही अनुश्रवण करने का प्रयास करना चाहिए।
शिष्य की श्रद्धा तथा गुरु का अनुग्रह ही दीक्षा कहलाता है।
दीक्षा एवं शिक्षा जीवन में परम आवश्यक है ।